श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

'गौतम! क्या दासप्रथा बुरी नहीं है? क्या पशु-बलि बुरी नहीं है? क्या शूद्र के प्रति घृणा बुरी नहीं है? क्या नारी जाति के प्रति हीनता का भाव बुरा नहीं है? आज का समाज न जाने कितनी बुराइयों का भार ढो रहा है। मैं इन बुराइयों को पत्र, पुष्प और फल मानता हूं। बुराई की जड़ है मिथ्या दृष्टिकोण। गौतम! कुछ धर्माचार्य अग्र के शोधन में विश्वास करते हैं। मैं मूल और अग्र दोनों के शोधन की अनिवार्यता प्रतिपादित करता हूं। तुम जाओ और इस पर गहराई से विचार करो'- यह कहकर भगवान् मौन हो गए। गौतम अतीत से हटकर भविष्य की कल्पना में खो गए।
तत्कालीन धर्म और धर्मनायक
भारतीय क्षितिज में धर्म का सूर्य सुदूर में उदित हो चुका था। उसका आलोक
जैसे-जैसे फैला वैसे-वैसे जनमानस आलोकित होता गया। आलोक के साथ गौरव बढ़ा और गौरव के साथ विस्तार।
भारतीय धर्म की दो धाराएं बहुत प्राचीन हैं- श्रमण और वैदिक। श्रमण धारा का विकास आर्य-पूर्व जातियों और क्षत्रियों ने किया। वैदिक धारा का विकास ब्राह्मणों ने किया। दोनों मुख्य धाराओं की उप-धाराएं अनेक हो गईं। भगवान् महावीर के युग में तीन सौ तिरेसठ धर्म-सम्प्रदाय थे यह उल्लेख जैन लेखकों ने किया है। बौद्ध लेखक बासठ धर्म-सम्प्रदायों का उल्लेख करते हैं। जैन आगमों में सभी धर्म-सम्प्रदायों का चार वर्गों में समाहार किया गया है-
१. क्रियावाद
२. अक्रियावाद
३. अज्ञानवाद
४. विनयवाद
भगवान् महावीर गृहस्थ जीवन में इन वादों से परिचित थे। इनकी समीक्षा कर उन्होंने क्रियावाद का मार्ग चुना था।
भगवान् महावीर का समय धार्मिक चेतना के नव-निर्माण का समय था। विश्व के अनेक अंचलों में प्रभावी धर्म-नेताओं के द्वारा सदाचार और अध्यात्म की लौ प्रज्वलित हो रही थी। चीन में कनफ्युशस और लाओत्से, यूनान में पैथागोरस, ईरान में जरस्यु, फिलस्तीन में मूसा आदि महान् दार्शनिक दर्शन के रहस्यों को अनावृत कर रहे थे। भारतवर्ष में श्वेतकेतु, उद्दालक, याज्ञवल्क्य आदि ऋषि औपनिषदिक अध्यात्म का प्रचार कर रहे थे। श्रमण परम्परा में अनेक तीर्थंकर विचार-क्रान्ति का नेतृत्व कर रहे थे। उनमें मुख्य थे-मक्खलिपुत्त गौशालक, पूरणकश्यप, पकुधकात्यायन, अजितकेशकबली और संजयवेलठ्ठिपुत। भगवान् बुद्ध ने महावीर के दस वर्ष बाद बोधि प्राप्त की थी। भगवान् महावीर ने ई० पू० ५५७ में कैवल्य प्राप्त किया और भगवान् बुद्ध ने ई. पू. ५४७ में बोधि प्राप्त की। भगवान् पार्श्व का निर्वाण हो चुका था। उनकी परम्परा का नेतृत्व कुमारश्रमण केशी कर रहे थे।
भगवान् पार्श्व का धर्म भारतवर्ष के विभिन्न अंचलों में प्रभावशाली हो चुका था। भगवान् नागवंशी थे। अनेक नागवंशी राजतंत्र और गणतंत्र उनके अनुयायी थे मध्य एवं पूर्वी देशों के व्रात्य क्षत्रियों में उनका धर्म लोकप्रिय हो चुका था। वैशाली और वैदेह के वज्जीगण भगवान् पार्श्व के परम भक्त थे। भगवान् महावीर का परिवार भगवान् पार्श्व के धर्म का अनुयायी था। भगवान् बचपन से ही भगवान् पार्श्व और उनकी धर्म-परम्परा से परिचित थे। भगवान् का गृहत्याग श्रमणधर्म की प्राची में बाल-सूर्य के आलोक का संचार था। भगवान् के द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन श्रमणधर्म के पुनरुत्थान का अभिनव अभियान था।
भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के प्रति अत्यन्त श्रद्धानत थे। वे भगवान् पार्श्व को पुरुषादानीय (लोकनेता) के सम्मान्य संबोधन से सम्बोधित करते थे। किन्तु भगवान् पार्श्व की परम्परा में, कुछ कारणों से, लक्ष्य के प्रति शिथिलता आ गई थी भगवान् महावीर द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन का अर्थ था-पार्श्व की परम्परा का नवीनीकरण ।