धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

इसमें वनस्पतिकाय के जीवों की मनुष्य के साथ तुलना सुन्दर भाषा में की गई है जैसे-
इर्मपि जाइधम्मयं, एयंपि जोइधम्मयं।
इमंपि वुद्धिधम्मयं, एयंपि वुद्धिधम्मयं।
इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति।
यह मनुष्य भी जन्मता है, यह वनस्पति भी जन्मती है। यह मनुष्य भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य भी छिन्न होने पर म्लान होता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है।
दूसरा अध्ययन लोकविचय है। इसमें अनित्य अनुप्रेक्षा व अशरण अनुप्रेक्षा के सूत्र उपलब्ध हैं।
'अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं।'
इस संसार में कुछ मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है।
नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा।
तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ।।
वे स्वजन आदि तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।
प्रतिपक्ष भावना का आधार भी इसमें मिलता है– लोभं अलोभेण दुगुंछमाणे– लोभ को अलोभ से पराजित करनेवाला'।
मृत्यु के लिए सब स्थान और सब समय खुले हैं इस सच्चाई को अति संक्षेप में बतलाया गया है-
'णत्थि कालस्स णागमो'– 'मृत्यु के लिए कोई क्षण अनवसर नहीं है।' और भी बहुत-से सूक्त इस अध्ययन के मननीय हैं-
'उद्देसो पासगस्स णत्थि'–
द्रष्टा के लिए कोई निर्देश नहीं है।
'कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के'–
कुशल न बद्ध होता है और न मुक्त होता है।
'एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए'–
वह वीर प्रशंसित होता है, जो बंधे हुए मनुष्यों को मुक्त करता है।
'मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्मसरीरगं'–
मुनि ज्ञान को प्राप्त कर कर्मशरीर को प्रकम्पित करे।
'णारतिं सहते वीरे, वीरे णो सहते रतिं'–
वीर पुरुष न अरति को सहन करता है और न रति को।
'से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइय'–
उसी मुनि ने पथ को देखा है, जिसके पास परिग्रह नहीं है।
'अलं कुसलस्स पमाएणं'–
कुशल को प्रमाद से क्या प्रयोजन?
'जे ममाइयमतिं जहाति से जहाति ममाइयं'–
जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है।
'अपरिण्णाए कंदति'–
त्याग नहीं करने वाला व्यक्ति क्रन्दन करता है।
'जेण सिया तेण णो सिया'– जिससे (सुख) होता है, उससे नहीं भी होता।
'आसं च छंदं च विगिंच धीरे'–
हे धीर! तू आशा और स्वच्छन्दता को छोड़।
'मदा मोहेण पाउडा'– मंद मनुष्य मोह से अतिशय रूप में आवृत रहते हैं।