कल्पतरु पुरुष - आचार्य श्री भिक्षु

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डा. मुनि मदन कुमार

कल्पतरु पुरुष - आचार्य श्री भिक्षु

गतांक से आगे...
तत्त्व चिंतन आत्मोदय का हेतु है। आचार्य श्री भिक्षु ने तात्त्विक विमर्श कर महान उपकार किया है। उनके साहित्य और चिंतन में तत्त्व की प्रधानता है और उसमें दृष्टि-परिमार्जन की अपार क्षमता है। तात्त्विक चिंतन के कुछ बिंदु यहाँ प्रस्तुत हैं –
1. भगवान महावीर ने गोशालक को बचाया – यह सावद्य अनुकंपा है, राग भाव है, अशुभ लेश्या का प्रयोग है तथा छद्मस्थ अवस्था की भूल है। अन्य लोग मानते हैं कि भगवान ने गोशालक को बचाया – यह धर्म है।
2. छठे गुणस्थान – प्रमत्त संयत गुणस्थान में छहों लेश्याएं होती हैं। साधु के कदाचित अशुभ लेश्या और अशुभ योग दोनों होते हैं। अन्य लोग मानते हैं कि साधु में अशुभ लेश्या नहीं होती है।
3. बाल तप – मिथ्यात्वी की तपस्या निरवद्य है और मोक्ष का हेतु है। अन्य लोग मानते हैं कि बाल तप सावद्य है और संसार का कारण है।
4. मिथ्या दृष्टि की सकाम और अकाम – दोनों प्रकार की निर्जरा हो सकती है। अन्य लोग मानते हैं कि मिथ्या दृष्टि की केवल अकाम निर्जरा ही होती है, सकाम निर्जरा नहीं।
5. मिथ्यात्वी की तपस्या जिनाज्ञा में है। अन्य लोग मानते हैं कि मिथ्यात्वी की तपस्या जिनाज्ञा के बाहर है, मिथ्यात्वी के तप नहीं होता है।
6. निर्जरा भगवान की आज्ञा में है, चाहे वह सकाम हो या अकाम। अन्य लोग मानते हैं कि अकाम निर्जरा आज्ञा में नहीं है। अकाम निर्जरा को वे सावद्य मानते हैं।
7. तामली तापस मोक्ष का देशाराधक है। अन्य लोग मानते हैं कि तामली तापस मोक्ष का देशाराधक नहीं है। वे मिथ्यात्वी को मोक्ष का देशाराधक नहीं मानते हैं।
8. मिथ्यात्वी के ही संसार परित होता है। जैसे मेघकुमार के जीव ने हाथी के भव में मिथ्यात्व दशा में संसार परित किया। अन्य लोग मानते हैं कि सम्यक्त्वी के ही संसार परित होता है। वे मेघकुमार के जीव को हाथी के भव में सम्यक्त्वी मानते हैं।
9. अनुकंपा – सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की होती है। अन्य लोग मानते हैं कि अनुकंपा सावद्य नहीं होती है।
10. धर्म-दान के अलावा सारे दान सावद्य हैं और अधर्म हैं। अन्य लोग मानते हैं कि नौ दान अधर्म-दान नहीं हैं। अनुकंपा दान सावद्य है और उससे पाप का बंध होता है। अन्य लोग मानते हैं कि अनुकंपा दान निरवद्य है तथा उससे साता वेदनीय – पुण्य का बंध होता है।
11. निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है। अतः शुभ योग – निर्जरा और आश्रव दोनों है। पुण्य स्वतंत्र बंध नहीं होता। अन्य लोग मानते हैं कि निर्जरा के साथ ही पुण्य-बंध का कोई नियम नहीं है।
12. श्रावक के अव्रत की अप्रत्याख्यान की क्रिया लगती है क्योंकि वह देशविरत है, सर्वविरत नहीं है। श्रावक व्रताव्रती और बाल-पंडित है, अतः उसके अव्रत आश्रव रहता है। अन्य लोग मानते हैं कि श्रावक को अव्रत की – अप्रत्याख्यान की क्रिया नहीं लगती है।
13. पंच परमेष्ठी ही वंदनीय हैं। श्रावक और प्रतिमाधारी वंदनीय नहीं हैं। अन्य लोग मानते हैं कि पंच परमेष्ठी के अलावा भी वंदनीय हैं – गुणवान पुरुष वंदनीय हैं।
14. आश्रव जीव है और कर्मग्रहण का आत्म-परिणाम है। आत्मा का परिणाम आत्मा है, जीव है। अन्य लोग मानते हैं कि आश्रव – जीव और अजीव दोनों हैं।
15. पुण्य, पाप और बंध – अजीव हैं। ये पुद्गल की पर्याय हैं, अतः पुद्गल हैं और अजीव हैं। अन्य लोग मानते हैं कि पुण्य, पाप और बंध – जीव-अजीव दोनों हैं।
16. शुभ योग – आश्रव और निर्जरा है। शुभ योग से पुण्य का बंध होता है, अतः आश्रव है तथा शुभ योग से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं, अतः निर्जरा है। किन्तु शुभ योग – संवर नहीं है। अन्य लोग शुभ योग को संवर मानते हैं। वे अशुभ योग को आश्रव और शुभ योग को संवर मानते हैं।
17. पहले गुणस्थान का नाम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। वह क्षायोपशमिक भाव होने से निरवद्य है। मिथ्यात्वी में पाई जाने वाली दृष्टि विषयक आत्म-विशुद्धि – मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। अन्य लोग पहले गुणस्थान का नाम मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं तथा उसे सावद्य मानते हैं।
18. योग के दो प्रकार हैं – शुभ और अशुभ। ये दोनों पृथक-पृथक हैं। इन दोनों का मिश्रण नहीं होता है। अर्थात मिश्र-योग नहीं होता, मिश्र-क्रिया भी नहीं होती है, मिश्र-बंध भी नहीं होता है, मिश्र-धर्म भी नहीं होता है। अन्य लोग मिश्र-धर्म मानते हैं। किसी सूत्र में मिश्र-धर्म नहीं है। कई अन्य लोग असंयमी जीवों के पोषण में पुण्य मानते हैं और कई मिश्र मानते हैं। ये दोनों ही मान्यता वाले सम्यक्त्व से रहित हैं।
19. आत्म-रक्षा दया है। जीव-रक्षा या प्राण-रक्षा प्रासंगिक है, मुख्य नहीं। अपनी आत्मा को असत् प्रवृत्ति से बचाना ही दया है। किसी के जीवन को बचाना मोहानुकंपा है – वह सावद्य है। असंयमी के जीने की वांछा करना राग है, धर्म नहीं है। अन्य लोग जीव-रक्षा, जीव-दया, प्राण-रक्षा आदि को प्रधानता देते हैं – यह आगम अनुमोदित नहीं है।
20. गृहस्थ को सूत्र पढ़ने की जिनाज्ञा नहीं है। सूत्र पढ़ने की आज्ञा केवल साधु को ही है। अन्य लोग गृहस्थ को सूत्र सिखाते हैं – यह जिनाज्ञा के बाहर है।
21. देवगति और नरकगति में जीव के दो भेद पाए जाते हैं – तेरहवाँ और चौदहवाँ। संज्ञी जीवों में ये दो भेद पाए जाते हैं। संज्ञी जीवों में असंज्ञी जीवों के भेद नहीं पाए जाते हैं। अन्य लोग देवगति और नरकगति में जीव के तीन भेद मानते हैं – ग्यारहवाँ, तेरहवाँ और चौदहवाँ। यह न्यायसंगत नहीं है।
22. स्थानांग में पुण्य तत्व के नौ भेद बताए गए हैं – अन्न पुण्य आदि। शुद्ध साधु को कल्पनीय व्यक्ति द्वारा कल्पनीय आहार देने से निर्जरा होती है तथा सहचर रूप में होने वाले पुण्य-बंध को अन्न पुण्य कहते हैं। यहाँ संयम का पोषण है, अतः निर्जरा और अन्न पुण्य दोनों होते हैं। अन्य लोग असंयमी प्राणी को देने में भी अन्न पुण्य मानते हैं – यह आगम सम्मत नहीं है।
23. सुपात्र दान (संयमी दान) से होने वाले शुभ कर्म-बंध को अन्न-पुण्य कहा है। पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने से होने वाले शुभ कर्म-बंध को नमस्कार पुण्य कहा है। ये कार्य जिनाज्ञा के अंतर्गत हैं। अन्य लोग भूखे (गरीब, अनाथ, क्षुधातुर आदि) को भोजन देने में पुण्य कहते हैं – तो इन्हें नमस्कार करने में नमस्कार पुण्य क्यों नहीं?
24. वास्तव में हर व्यक्ति को धर्म (निर्जरा) करने का अधिकार है। तेरापंथ की मान्यता है कि मिथ्यात्वी व्यक्ति भी यदि सकारात्मक सत्क्रिया करता है, तो उसे धर्म होता है। किन्तु अन्य लोग मानते हैं कि मिथ्यात्वी व्यक्ति चाहे शील, सत्य और तप का आचरण क्यों न करता हो, वह सब धर्म का हेतु न होकर भव-बंधन का हेतु ही होता है। वे मिथ्यात्वी की हर धार्मिक क्रिया को भववर्धक मानते हैं।
25. प्रमाद आश्रव का अर्थ है – धर्म के प्रति उत्साह की कमी। यहाँ पर योग रूप प्रमाद को ग्रहण नहीं करना चाहिए। वस्तुतः छठे गुणस्थान तक निरंतर प्रमाद आश्रव रहता है। अन्य लोग प्रमाद-आश्रव के अंतर्गत मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा रूप योग को ग्रहण करते हैं – यह यौक्तिक नहीं है।
26. अपनी आत्मा को असत् प्रवृत्ति से और पाप कर्म से बचाना – धर्म है। यह दया है। चींटी का बचना दया नहीं है – वह प्रासंगिक है। चींटी को बचाने के लिए प्रयत्न करना – रागात्मकता है, रागात्मकता धर्म नहीं है, मोक्ष मार्ग नहीं है।
27. भगवती सूत्र में ‘अल्प पाप और बहुत निर्जरा’ का सिद्धांत निरूपित है। यहाँ पर अल्प का अर्थ ‘थोड़ा’ न होकर ‘निषेधात्मक’ है। अर्थात साधु यदि अनजान में अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करे या भोग ले तो उसे पाप नहीं लगता, केवल निर्जरा ही होती है। अन्य लोग इस सिद्धांत को आधार बनाकर विषम स्थिति में अनेषणीय (अकल्पनीय) ग्रहण करने की स्थापना करते हैं तथा उसमें दान ग्रहण करने वाले साधु और दानदाता श्रावक को थोड़ा पाप और बहुत निर्जरा मानते हैं – यह मान्यता सिद्धांत-सम्मत नहीं है। -इति