किसी भी परिस्थिति में ना छूटे धर्म का मार्ग : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 11 जुलाई, 2025

किसी भी परिस्थिति में ना छूटे धर्म का मार्ग : आचार्यश्री महाश्रमण

विशाल जनसमूह को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया – मानव जीवन प्राप्त होना बहुत अच्छी और ऊंची बात होती है, और यदि वह जन्म धार्मिक परिवार तथा धार्मिक माहौल में हुआ हो, तो और भी श्रेष्ठ हो जाता है। यदि किसी व्यक्ति को धर्म की जानकारी मिल जाए और वह धर्म को स्वीकार भी कर ले, लेकिन बाद में उसके किसी ऐसे कर्म का उदय हो कि वह धर्म को छोड़ने की इच्छा कर ले और भोग प्रधान जीवन शैली अपना ले, तो वह व्यक्ति अभागा कहलाता है, जिसने प्राप्त धर्म को छोड़ दिया।
व्यक्ति त्याग को स्वीकार करता है, तो कभी-कभी उसमें अतिक्रमण या दोष सेवन की स्थिति आ सकती है, लेकिन धर्म के प्रति आस्था नहीं छूटनी चाहिए। उदाहरण के रूप में, यदि किसी ने चौविहार उपवास रखा है और रात्रि को पानी नहीं पीना है, किंतु कोई शारीरिक तकलीफ हो जाए और परिवारजन भी दबाव डालें कि इंजेक्शन या दवा ले लो, तथा स्वयं का भी मन डगमगाने लगे, तो व्यक्ति उपवास में दवा या इंजेक्शन ले लेता है। यह त्याग में अतिक्रमण का दोष हो सकता है, हालांकि दोष न हो तो वह और भी ऊंची स्थिति मानी जाती है। फिर भी यदि दवा ले ली और बाद में प्रायश्चित लेने की भावना हो, तो यह एक क्षणिक दोष सेवन हो गया। किंतु देव, गुरु, और धर्म के प्रति आस्था नहीं छूटनी चाहिए। क्रियात्मक मजबूरी में दोष संभव है, परंतु आस्था में कमी नहीं होनी चाहिए।
आचार्यश्री ने कहा – संस्कृत ग्रंथ 'सूक्ति मुक्तावली' में आया है कि एक व्यक्ति के घर के मैदान में कल्पवृक्ष उगा हुआ था, लेकिन उसने उसे उखाड़कर फेंक दिया और उसकी जगह धतूरे का पेड़ लगा दिया। यह पूर्णतः मूर्खता की बात लगती है। दूसरा व्यक्ति चिन्तामणि रत्न को किसी कौए को उड़ाने के लिए फेंक देता है और उसकी जगह गली में पड़ा कांच का टुकड़ा उठा लाता है। यह भी नासमझी है। तीसरा व्यक्ति श्रेष्ठ हाथी को बेचकर उसके बदले में गधा खरीद लेता है। ये सब मूर्खता के उदाहरण हैं। उसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म को प्राप्त करके उसे छोड़ देता है और अधर्म तथा भोगों की ओर चला जाता है, वह भी वैसा ही नासमझ होता है।
एक बार यदि किसी को देव, गुरु, और धर्म के तत्व मिल जाएं तो किसी कठिनाई के आने पर भी धर्म को छोड़ना बहुत बड़ी नासमझी है। जो कठिनाई आई है, उसका मूल कारण हमारे पूर्व कर्म हैं। भगवान महावीर जैसे व्यक्तित्व को भी उनके कर्मों का फल भोगना पड़ा, तो हम क्या हैं? बुद्ध और सनत्कुमार चक्रवर्ती को भी भोगना पड़ा। अतः व्यक्ति को सोचना चाहिए कि जो भी कठिनाई आई है वह मेरे पूर्व कर्मों का उदय है, और यदि मैं धर्म करूं तो वे कर्म aकी परीक्षा है। भौतिक विपत्तियां जैसे मृत्यु, व्यापार में घाटा, या बीमारी आदि आने पर भी व्यक्ति को धर्म का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए। धर्म मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर रहे। यदि संयम जीवन प्राप्त हो गया और कठिनाई आने पर वह जीवन छोड़ दिया गया, तो बहुत बड़ी पूंजी गंवा दी। यह भी अभाग्य की स्थिति है। साधु को सोचना चाहिए कि छोटी-मोटी कठिनाइयां आएं तो आएं, पर मेरा संयम नहीं छूटना चाहिए।
श्रावकों के संदर्भ में पूज्यवर ने कहा – मान लें कोई राष्ट्रपति बन गया, तो वह पद उसे कुछ वर्षों के लिए ही मिल सकता है, परंतु सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई तो वह जीवनभर और अगले जन्मों में भी साथ रह सकता है। सम्यक्त्व एक उत्तम और स्थायी पदवी है। एक बार कोई त्याग लिया जाए, तो उसे निभाने में जागरूकता होनी चाहिए। गृहस्थों को धन की आवश्यकता हो सकती है, परंतु धन कमाने में धोखाधड़ी न करें। जो दिखाया है वही दें, और जो दिया है वही दिखाएं। ग्राहक और विक्रेता, दोनों ही एक-दूसरे को ठगने का कार्य न करें। आजीविका में भी धर्म रहे – न केवल धर्म स्थान पर, बल्कि कर्म स्थान पर भी।
आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत का जो सिद्धांत बताया, वह जीवन व्यवहार और कर्म स्थान का धर्म है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी प्रेक्षाध्यान करवाते थे। यदि हमारे पास केवल पांच मिनट का समय हो, तो उसमें कायोत्सर्ग, दीर्घ श्वास, जप आदि का प्रयोग किया जा सकता है। वह पांच मिनट भी शुभ बन सकते हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ धर्म न छूटे। सामायिक, त्याग, प्रत्याख्यान – कुछ भी हो सकता है। सामायिक का समय न हो तो थोड़े-थोड़े समय के त्याग – जैसे भोजन के बाद कुछ विशेष स्थिति के सिवाय कुछ न खाना – भी किया जा सकता है।
मानव जीवन मिलना बहुत अच्छी बात है। यदि साधु जीवन में संवर और संयम हो, तो यह भी बहुत श्रेष्ठ स्थिति है। यदि गृहस्थ पूरी तरह संयम में न भी रह सके, तो अणुव्रतधारी बन सकता है, और साधुओं की साधना में सहयोगी बन सकता है। जैसे भोजन उपलब्ध है तो साधु-साध्वियों को भोजन देना, वस्त्र उपलब्ध हैं तो अर्पित करना, दवाइयां उपलब्ध हैं तो देना, चिकित्सक हैं तो नि:शुल्क सेवा देना। यह सब साधुओं की साधना में सहयोग करने के साधन हैं। अपने जीवन में भी त्याग और संयम रहें। यदि हमारी क्षमता एक उपवास की है, तो उसे बढ़ाने का प्रयास करें। धर्म हमारे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है। आत्मकल्याण और आत्मशुद्धि की भावना बनी रहे। अहिंसा, संयम और तप से अपने को भावित करते रहें। शास्त्रों को पढ़कर, सुनकर और चिंतन कर धर्म में दृढ़ता लाई जा सकती है।
प्रेक्षा विश्व भारती में कई लोग दो-चार महीने के लिए प्रवास कर रहे हैं और यहाँ अच्छा धार्मिक वातावरण है – साधु, साध्वियां, समणियां हैं। स्वाध्याय, तपस्या, पौषध आदि सहज रूप से हो सकते हैं। यह गुरुकुलवास और चातुर्मास में लाभ लेने का अवसर है। श्रावकों को साधुओं के माता-पिता के समान कहा गया है। जैसे माता-पिता संतान की चिंता करते हैं, वैसे ही श्रावक साधुओं की चिंता करें। यदि कोई साधु साधना में कमजोर पड़ता दिखाई दे, तो उसे संयम में स्थिर करने का प्रयास करें। कोई छोटा साधु हो और किसी श्रावक के पास ज्ञान हो, तो साधु के ज्ञानवर्धन में सहायता करें। इस प्रकार की सेवाएं करके ही श्रावक माता-पिता के समान हो सकते हैं। किसी साधु से गलती हो जाए और उसे प्रचारित करना शुरू कर दें, तो यह उचित नहीं है। माता-पिता वही होते हैं जो संतान के हित की चिंता करें। इसी तरह श्रावक समाज में भी वे ही श्रेष्ठ हैं जो दूसरों को धर्म की ओर प्रेरित कर सकें। यदि ये बातें हमारे जीवन में बनी रहें, तो हमारा जीवन निश्चित ही सार्थक हो सकता है।