
गुरुवाणी/ केन्द्र
सत्यनिष्ठा ही है शांति का स्रोत : आचार्यश्री महाश्रमण
प्रेक्षा विश्व भर्ती के वीर भिक्षु समवसरण में मंगल देशना प्रदान करते हुए आचार्यश्री महाश्रमणजी ने कहा – आगम वाङ्मय हमारे लिए सम्माननीय साहित्य हैं। जैन शासन की दो मुख्य धाराएं हैं – श्वेतांबर और दिगंबर। दिगंबर परंपरा के मुनि अचेल रहते हैं, जबकि श्वेतांबर परंपरा के साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं। अचेलता और सचेलता दो रूपों में भेद दर्शाते हैं – जैसे एक पिता के दो पुत्र हो सकते हैं, वैसे ही यदि हम भगवान महावीर को धर्म-पिता मानें तो श्वेतांबर और दिगंबर दोनों उनकी संतान स्वरूप हैं। दोनों संप्रदायों के सिद्धांत, मान्यताएं और ग्रंथों में अत्यधिक समानता है, भिन्नता अत्यंत न्यून है। भगवान महावीर मूल हैं और ये दोनों उनकी विशाल शाखाएं हैं।
श्वेतांबर परंपरा में विशेषकर तेरापंथ परंपरा में 32 आगमों को मान्यता प्राप्त है। इन 32 आगमों को प्रमाणस्वरूप स्वीकार किया जाता है क्योंकि इनमें निहित निर्देश श्रद्धेय और आदरणीय हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार है – 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद और 1 आवश्यक। आचार्य महाप्रज्ञ ने 11 अंगों में प्रथम 'आयारो' के प्रथम श्रुत स्कंध पर संस्कृत में भाष्य एवं व्याख्या की रचना की। आचारांग भाष्य में कहा गया है कि जो मेधावी व्यक्ति सत्य की आज्ञा में उपस्थित होता है, वह जन्म-मरण के समुद्र को पार कर लेता है और अपनी कामनाओं को भी।
आचार्यश्री ने स्पष्ट किया कि तीर्थंकर हमारे धर्म के सर्वोच्च प्रवक्ता होते हैं। यदि वे विराजमान हों और उन्होंने किसी कार्य का निर्देश दिया हो तो उस पर किसी अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। वे सर्वज्ञ एवं प्रामाणिक पुरुष हैं। अंग आगम स्वयं प्रमाण स्वरूप हैं। तीर्थंकर की अनुपस्थिति में उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन प्रमुख आचार्य की आज्ञा में रहना चाहिए। तेरापंथ धर्मसंघ में तो यही व्यवस्था है कि सभी साधु-साध्वी एक आचार्य की आज्ञा में रहते हैं। आगम और उनके अर्थ में यदि मतभेद हो तो अंतिम निर्णय आचार्य का ही होता है।
शास्त्र में कहा गया है – सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहो। आगम का अर्थ करते समय तटस्थता और निष्पक्षता आवश्यक है। कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए। यदि कोई जानबूझकर आगम का अर्थ अपनी मान्यता के अनुरूप तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है, तो यह गंभीर अपराध है। यदि अंतिम निर्णय देते समय आचार्य भी तटस्थता न रखें तो यह भी दोषपूर्ण स्थिति हो सकती है। जब तक तटस्थता और वीतरागता का भाव रहेगा, तब तक मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
आचारांग भाष्य में स्पष्ट किया गया है – 'सत्य की आज्ञा में जो उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है।' साधुओं के संदर्भ में तीन करण और तीन योगों से झूठ बोलने का त्याग होता है। हर सत्य बात बोलना आवश्यक नहीं, परंतु झूठ न बोलना अनिवार्य है। गृहस्थ जीवन में भी यदि संकल्प और मनोबल हो तो झूठ से बचा जा सकता है। त्याग की भावना होना आवश्यक है। सत्य के मार्ग में कठिनाई आ सकती है, पर उसका अंतिम परिणाम उत्कृष्ट होता है। आचार्यश्री ने तेरापंथ किशोर मंडल के राष्ट्रीय अधिवेशन में उपस्थित किशोरों को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि जीवन में कर्तव्यबोध और उसके पालन की भावना होनी चाहिए। पूज्यवर ने उपस्थित किशोरों को शराब और ड्रग्स से दूर रहने का संकल्प भी करवाया।