
स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
छठे अध्ययन का नाम धुत है। धुत का अर्थ है प्रकम्पित और पृथक्कृत। प्रस्तुत अध्ययन के पांच उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक में एक-एक धुत प्रतिपादित है-
१. स्वजन परित्याग
२. कर्म-परित्याग
३. उपकरण और शरीर-परित्याग
४. ऋद्धि, रस और सुख-इस गौरवत्रयी का परित्याग
५. उपसर्ग और सम्मान का परित्याग।
पास लोए महब्भयं– तू देख-लोक में महान् भय है।
पाणा पाणे किलेसति– प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं।
बहुदुक्खा हु जंतवो– जीवों के नाना दुःख होते हैं।
णातिवाएज्ज कचण– किसी की हिंसा न करे।
आठवें अध्ययन का नाम विमोक्ष है। इसमें तीन प्रकार के अनशन का अच्छा वर्णन है। इस अध्ययन के कुछ सूक्त इस प्रकार हैं-
अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स– अथवा वाणी के विषय का संगोपन करे- मौन रहे।
आहारोवचया देहा परिसहपभंगुरा– शरीर आहार से उपचित होते हैं और वे कष्ट से भग्न हो जाते हैं।
नवें अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है। इसमें संक्षेप में महावीर की जीवनी का अवबोध होता है।
इस प्रकार आयारो अध्यात्म-शास्त्र अथवा समता-शास्त्र है। इसका बार-बार स्वाध्याय आत्मोन्मुखी बनने में सहायक बन सकता है।
ठाणं
द्वादशांगी में तीसरा अंग है ठाणं (स्थानांग)। उसकी विषय-सामग्री दस स्थानों में विभक्त है। प्रथम 'स्थान' में एक-एक की संख्या वाले विषयों की सूची है। दूसरे स्थान में दो-दो विषयों का संकलन है। तीसरे स्थान में तीन-तीन की संख्या वाले विषयों की परिगणना है। इस प्रकार उत्तरोत्तर क्रम से दसवें स्थान में दस-दस तक के विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इस एक अंग का परिशीलन कर लेने पर हजारों विविध प्रतिपाद्यों के भेद-प्रभेदों का गंभीर ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
संख्या के अनुपात से एक द्रव्य के अनेक विकल्प करना, इस आगम की रचना का मुख्य उद्देश्य रहा हो, ऐसी संभावना 'कसायपाहुड' ग्रन्थ से पुष्ट होती है। उदाहरण स्वरूप-प्रत्येक शरीर की दृष्टि से जीव एक है। संसारी और मुक्त इस अपेक्षा से जीव दो प्रकार के हैं। कर्म-चेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना की दृष्टि से वह त्रिगुणात्मक है। गति-चतुष्टय में संचरणशील होने के कारण वह चार प्रकार का है। औदयिक आदि पांच भावों वाला होने के कारण वह पांच प्रकार का है। पृथ्वीकाय आदि छह काय की जीवयोनि में भ्रमणशील होने के कारण वह छह प्रकार का है। स्याद अस्ति आदि के स्वरूप वाली सप्तभंगी से निरूपित होने के कारण वह सात प्रकार का है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण और आदि आठ कर्मों से युक्त होने के कारण जीव आठ विकल्प वाला है। पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावर काय, तीन विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय – इन नौ योनियों में उत्पत्तिशील होने के कारण वह नौ प्रकार का है। प्रत्येक वनस्पतिकाय, साधारण वनस्पतिकाय, चार स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और एक पंचेन्द्रिय-इन दस स्थानों में जन्मशील होने के कारण जीव दस प्रकार का होता है।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में संख्यात्मक रूप से जीव, अजीव आदि द्रव्यों की स्थापना की गई है। प्रस्तुत
सूत्र में भूगोल, खगोल तथा नरक ओर स्वर्ग का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य भी उपलब्ध होते हैं।