
गुरुवाणी/ केन्द्र
दुःख से स्पृष्ट होने पर भी नहीं बनें व्याकुल : आचार्यश्री महाश्रमण
प्रेक्षा विश्व भारती के वीर भिक्षु समवसरण में उपस्थित जनता को तेरापंथ अधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने 'आचारांग भाष्यम्' के माध्यम से पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि दुःख से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं बनें। आदमी के जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार की परिस्थितियां आ सकती हैं। साधु जीवन में भी प्रतिकूल परिस्थितियां आ सकती हैं, जैसे कभी स्थान अनुकूल न मिले, गर्मी में हवादार और सर्दी में गर्म स्थान न मिले, आँगन टूटा-फूटा हो, कभी आहार पूरा न मिले, कभी कुछ लोग निंदा करने वाले, गालियां देने वाले मिल जाएं, विरोध करने वाले मिल जाएं। ऐसी स्थितियों में समता और शांति बनाए रखना साधु का धर्म है।
गृहस्थ जीवन में भी कठिनाइयां आ सकती हैं, जैसे आर्थिक परिस्थिति बिगड़ जाए, व्यापार में घाटा हो जाए, कर्ज हो जाए, व्यापार ठप हो जाए। ऐसी स्थिति में व्यक्ति परेशानी का अनुभव कर सकता है। तब भी उसे चाहिए कि वह अपने मन को शांत रखने का प्रयास करे, क्योंकि समस्या और मानसिक दुःख एक नहीं हैं। समस्या हो सकती है, लेकिन उससे मानसिक रूप से व्याकुल बनना आवश्यक नहीं है। मानसिक रूप से व्यक्ति शांत रहे। किसी समस्या के आने पर उसे दूर करने का प्रयास करें, लेकिन उससे दुःखी न हों। यह सोचना चाहिए कि यह कोई कर्मों का योग हो सकता है। कई बार गृहस्थ के सामने पारिवारिक समस्याएं भी आ सकती हैं। इन समस्याओं को कैसे ठीक करें, कैसे निपटें, इसके समाधान का प्रयास करें, लेकिन इनसे आकुल-व्याकुल न बनें। कभी मानसिक कठिनाई भी आ सकती है, जैसे अपेक्षित पदोन्नति न होना या किसी अन्य को पदोन्नति मिल जाना। इससे भी परेशान नहीं होना चाहिए। जहां हैं, वहां नैतिकता और ईमानदारी बनाए रखें।
दो प्रकार के दुःख हो सकते हैं – शोक और जरा। एक मानसिक परेशानी और एक शारीरिक समस्या। जरा और शोक की स्थिति में मनोबल अच्छा बना रहे और मानसिक संतुलन तथा धैर्य बना रहे। यही सफलता की विशेष बात होती है कि विपरीत परिस्थिति में भी आदमी का धैर्य न डोले, मन की शांति बनी रहे। धैर्य रखें, शांति रखें, समता भाव रखें और यथायोग्य समाधान का प्रयास करें। यदि सहिष्णुता नहीं होती है तो व्यक्ति समस्याएं आने पर मन से दुःखी बन सकता है। अध्यात्म की साधना की निष्पत्ति यह होनी चाहिए कि विपरीत परिस्थितियों में भी मन विशेष रूप से दुःखी न बने, सहज शांति बनी रहे। क्योंकि कर्मों के योग से विपरीत परिस्थितियां जीवन में आ सकती हैं, और किए हुए कर्मों का फल सामान्यतः भोगना ही पड़ता है। यह सोचना चाहिए कि मेरे कर्म हल्के हो रहे हैं, इन परिस्थितियों को मैं समता से सहन करूं। चाहे साधु हो या गृहस्थ, विपरीत परिस्थितियां दोनों के सामने आ सकती हैं। यदि हमारा चिंतन सही रहे, तो हम विपरीत परिस्थिति को आसानी से झेल सकते हैं।
यह साधना और अध्यात्म की बात है कि प्रतिकूलता में भी तटस्थ और शांत बने रहें। दुःख है, तो उसका कारण भी है। दुःखों से मुक्ति मिल सकती है और दुःख-मुक्ति का उपाय भी है। नव तत्वों में देखें – वहां पाप नाम का तत्व है। जब पाप उदय में आता है, तब व्यक्ति दुःखी बनता है। यदि पाप को दुःख मानें, तो दुःख का कारण है – पांचवां तत्व आश्रव। दुःख-मुक्ति है – नवां तत्व मोक्ष। मोक्ष का उपाय भी है – छठा तत्व संवर और सातवां तत्व निर्जरा। इन नव तत्वों में धर्म का सार समाहित है। यदि व्यक्ति इन नव तत्वों को अच्छी तरह समझ ले, तो चित्त में समाधि और शांति रह सकती है। जब हम इन शास्त्रों की कल्याणी वाणी को सुनते, पढ़ते और चिंतन करते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण भी प्रशस्त बन सकता है और कठिनाई को झेलना भी आसान हो जाता है। यदि तन में कठिनाई है और मन मजबूत है, तो तन की कठिनाई का प्रभाव भी कम हो सकता है।
परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी के जीवन को देखें, तो उनके सामने भी अनेक विपरीत परिस्थितियां आईं, परंतु उनका मनोबल, समता भाव और हिम्मत बनी रही। कठिनाइयां हों, तो हों, लेकिन अपने कार्य करते रहो। इसलिए आयारों में जो कहा गया – सहिष्णु मुनि दुःख मात्र से स्पृष्ट होने पर व्याकुल मति वाला न बने। साधु और गृहस्थ, दोनों व्याकुल न बनें, मन से दुःखी न बनें। चिंतन प्रशस्त और सम्यक् हो। यदि हम पॉजिटिव और रियल रहें, तो कठिनाइयों को झेलना आसान हो सकता है। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त मुनि मदनकुमारजी ने तपस्या के संदर्भ में जानकारी प्रदान की। प्रभा सुरेन्द्रमल लोढ़ा ने अपने शोध ग्रंथ ‘आचार्य महाप्रज्ञ एवं अनासक्त चेतना’ को पूज्यप्रवर के समक्ष लोकार्पित करते हुए अपनी भावाभिव्यक्ति दी।