
स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन दोनों प्रकार के प्रसंग और तथ्य संकलित हैं। उपलब्ध आगम सुधर्मा स्वामी की वाचना के माने गए हैं। सुधर्मा स्वामी भगवान महावीर के अनन्तर शिष्य होने के कारण उनके समकालीन हैं, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का रचनाकाल इस्वी पूर्व छठी शताब्दी माना जाता है। आगम-संकलन के समय अनेक अंश जोड़े गए हैं। उन्हें व्यवस्थित रूप दिया गया है, इसलिए संकलन-काल की दृष्टि से इसका समय ईसा की चौथी शताब्दी है, ऐसा माना गया है।
समवाओ के ९१वें प्रकीर्णक समवाय में 'ठाणं' का परिचय इस प्रकार मिलता है- 'स्थान में स्वसमय की स्थापना, परसमय की स्थापना तथा स्वसमय परसमय दोनों की स्थापना की गई है। जीवों की स्थापना, अजीवों की स्थापना तथा जीव-अजीव-दोनों की स्थापना की गई है। लोक की स्थापना, अलोक को स्थापना तथा लोक-अलोक दोनों को स्थापना की गई है। इसमें पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यव की स्थापना की गई है। इसमें पर्वत, सलिल (महानदी), समुद्र, सूर्य, भवन, विमान, आकर, नदी, निधि, पुरुषों के प्रकार, स्वर, गोत्र, ज्योतिश्चक्र का संचलन-इन सबका प्रतिपादन किया गया है। इसमें एकविध वक्तव्यता (पहले स्थान में) द्विविध वक्तव्यता (दूसरे स्थान में) यावत् दशविध वक्तव्यता (दसवें स्थान में) है। इसमें जीव, पुद्गल और लोकस्थायी (धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों) की प्ररूपणा की गई है। 'स्थान' की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढ़ा संख्येय, हैं, श्लोक संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। यह अंग की दृष्टि से तीसरा अंग है। इसके एक श्रुत स्कन्ध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशन-काल (दूसरे, तीसरे और चौथे) स्थान के चार-चार उद्देशक, पांचवें स्थान के तीन उद्देशक और शेष छह स्थानों के एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार सारे 8 + 8 + 8 + 3 + xi = इक्कीस उद्देशन- काल हैं। इक्कीस समुद्देशन काल, पदप्रमाण से बहत्तर हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है।
ठाणं का प्रारम्भ
प्रस्तुत आगम का प्रारम्भ 'सुयं मे आउसं! तेणं भगवता एवमक्खायं'।
(आयुष्मन्! मैंने सुना, उन भगवान ने ऐसा कहा) वाक्य से होता है। प्रथम अध्याय में एक-एक संख्यावाली वस्तुओं का वर्णन है, जैसे- एगे आया, एगे दंडे (एक आत्मा, एक दण्ड) आदि।
अठारह पाप, चौबीस दण्डक, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल आदि का संक्षिप्त उल्लेख इस अध्याय में मिलता है।
प्रथम अध्याय में अद्वैत (एक) का उल्लेख है। दूसरे अध्याय में दो द्वैत का उल्लेख है। इसमें दो-दो की संख्या वाली वस्तुओं का उल्लेख है, जैसे जीव-अजीव, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि। इसमें क्रियाओं का विस्तृत वर्णन है। मोक्ष-साधन, प्रत्याख्यान, आरम्भ-परिग्रह, गति-आगति आदि का भी वर्णन इसमें उपलब्ध है।
तीसरे अध्याय में तीन-तीन की संख्यावाली वस्तुओं का वर्णन है, जैसे तीन योग, तीन प्रयोग, तीन करण आदि। इसमें अल्प, दीर्घ आयुष्य-बन्ध के कारण, ताराओं के चलित होने के कारण, देवताओं का मनुष्य-लोक में आगमन, नरकावासों में वेदना, वस्त्रधारण के कारण, मन के प्रकार, देवों की ऋद्धि आदि का वर्णन है।
चौथे अध्याय में चार-चार की संख्यावाली स्थितियों का वर्णन है, जैसे-पुरुष के चार प्रकार, भाषा के चार प्रकार, चार धर्मद्वार आदि! इसमें ध्यान, क्रोध आदि कषाय, अस्तिकाय, विकथा, बन्ध, द्वीप, समुद्र, देवता का मनुष्य लोक में आगमन, आचार्य के प्रकार, संज्ञा आदि का वर्णन है।
पांचवें अध्याय में पांच-पांच की संख्यावाली स्थितियों का वर्णन है, जैसे पांच महाव्रत, पांच स्थावर काय, पांच शरीर आदि। इसमें स्वाध्याय, ज्योतिष्क, महानिर्जरा, महापर्यवसान आदि का वर्णन है।
छठे अध्याय में छह-छह की संख्यावाली स्थितियों का वर्णन है, जैसे-छह जीवनिकाय, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के छह-छह प्रकार आदि। इसमें प्रमाद, लेश्या, ज्ञान, प्रतिक्रमण, विशेष स्थितियों में साधु को साध्वी के स्पर्श (पकड़ना, सहारा देना) की अनुज्ञा आदि का वर्णन है।