
गुरुवाणी/ केन्द्र
साधना में बाधक है शरीर का अधिक उपचित होना : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, तीर्थंकर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा - साधु, साधुपन स्वीकार करता है। कोई बाल्यावस्था में, कोई युवावस्था में और कोई वृद्धावस्था में भी साधु बनते हैं। साधु जीवन में संयम की साधना करणीय होती है। संयम की साधना में जो बाधक तत्त्व लगे, उनसे दूर रहने का भी प्रयास वांछनीय है। साधना में एक बाधा है - शरीर का ज्यादा उपचित होना, मांस, शोणित का आधिक्य होना, शरीर खूब हृष्ट-पुष्ट होना। यहां दो बातें हो सकती हैं - साधना करने का साधन भी शरीर है तो शरीर साधना में बाधक भी बन सकता है। साधना के लिए एक संकरी गली बीच के मार्ग से गुजरना होता है कि मेरा शरीर सक्षम भी रहे, कार्यक्षम रहे और साथ में साधना में बाधा भी पैदा न हो। एकाकी साधना करने वाला साधु तो शरीर को थोड़ा कमजोर भी कर दे, क्योंकि कोई ऐसी जिम्मेदारी नहीं है, तकलीफ है तो है।
दो प्रकार की साधना हो जाती है - 1. संघबद्ध साधना 2. संघमुक्त साधना (एकाकी साधना)। दूसरी साधना कोई विशिष्ट साधु अच्छी तरह कर सकता है। एकाकी साधना की कुछ अर्हताएं होती हैं, यदि वे अर्हताएं हों तो एकाकी साधना की जा सकती है। यदि कोई किसी अन्य भावना से एकाकी साधना करे तो कठिनाई और नुकसान हो सकता है। आचार्य भी संघमुक्त होकर अकेले साधना कर सकते हैं, परन्तु उनके लिए अपेक्षित है कि संघ से मुक्त होने से पहले पीछे की व्यवस्था करें। अपने शिष्य को तैयार कर आचार्य संघ के सामने अपनी बात रखे कि मैं अब विशेष साधना में लगना चाहता हूं, अकेला रहकर साधना करना चाहता हूं। यह मेरा शिष्य है, इसे मैं अपना उत्तराधिकार सौंपता हूं। आप सभी जिस प्रकार मुझे मान-सम्मान देते थे, इसे भी वैसा ही मान-सम्मान देना। शिष्य को भी संघ की सार-संभाल हेतु निर्देश दें। आचार्य भिक्षु ने कहा है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, पंचम अर में अकेला घूमना ठीक नहीं है, एकाकी साधना अर्हता वर्तमान में कठिन है। वर्तमान में हमारे धर्मसंघ में संघबद्ध साधना का ही क्रम चलता है। संघबद्ध साधना में वृद्धों, रूग्णों, बाल मुनियों की सेवा का कार्य भी हो सकता है, इसलिए शरीर भी सक्षम होना चाहिए और साधना भी अच्छी चले। इसके लिए ‘आयारो’ में कहा गया है कि 'मांस और रक्त का विवेक करो, मांस और रक्त का उपचय मत करो। इतना उपचय मत करो कि तुम्हारी साधना में विकृति आ जाए।' शरीर स्वस्थ रहे और साधनानुकूल रहे, इसके लिए भोजन पर ध्यान देना चाहिए। साधु और गृहस्थ, दोनों के लिए भोजन पर ध्यान देना लाभदायक होता है। कठिनाई उस समय हो जाती है कि कई बार आदमी स्वाद के लिए खाता है, शरीर को जरूरत नहीं होती। स्वाद के लिए खाना, आसक्ति के लिए खाना परित्याज्य है। शरीर को जो अपेक्षा है, उसके लिए अनासक्त भाव से खाना चाहिए। खाने में उम्र का भी ध्यान रखना चाहिए। खाने में असंयम से शरीर में तकलीफ हो सकती है और साधना में भी तकलीफ हो सकती है। खाने में ऊनोदरी रखें। ऊनोदरी साधना और स्वास्थ्य, दोनों दृष्टियों से उपयोगी प्रतीत हो रही है। कम खाना, गम खाना, नम जाना। कम खाओ - स्वस्थ रहो, गम खाओ - मस्त रहो, और नम जाओ - प्रशस्त रहो। विगय वर्जन की बात भी आती है। छः विगय में से प्रतिदिन कुछ विगय को छोड़ने का प्रयास करें। विगय छोड़ना स्वास्थ्य और साधना, दोनों के लिए अच्छा है। गृहस्थ जीवन में भी खाने का संयम रहे। तपस्या आदि से यथासंभव संयम होता रहे। हमारी साधना में भी शरीर सहायक रह सके और शरीर का उपयोग भी हम अच्छा कर सकें। दोनों दृष्टियों को ध्यान में रखकर भोजन के संयम पर ध्यान देना चाहिए।
मंगल प्रवचन के उपरांत आचार्य प्रवर ने तेरापंथ प्रबोध के आख्यान का वाचन करवाया। शांतिलाल चोरड़िया ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी किया।