संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

१७. वीतरागो भवेल्लोको, वीतरागमनुस्मरन्। 
      उपासकदशां हित्वा, त्वमुपास्यो भविष्यसि।।
जो पुरुष वीतराग का स्मरण करता है, वह स्वयं वीतराग बन जाता है। वीतराग का स्मरण करने से तू उपासक दशा को छोड़कर स्वयं उपास्य बन जाएगा।
मनुष्य जैसा सोचता है वैसा बन जाता है। भीतर यदि जागरण न हो तो वह सोचना सम्मोहन पैदा कर देता है। आचार्य नागार्जुन के पास एक व्यक्ति मुक्ति के लिए आया। नागार्जुन ने कहा- 'तीन दिन का उपवास करो, नींद मत लो। और सामने खड़ी भैंस को दिखलाकर कहा, बस यही स्मरण करो कि मैं भैस हो गया। वह एकांत गुफा में चला गया। तीन दिन रात यही कहता रहा। भरोसा हो गया कि मैं भैस हो गया। चौथे दिन सुबह नागार्जुन आए और कहा-बाहर जाओ। वह भैस की आवाज में चिल्लाया और कहा-कैसे आऊं बाहर? नागार्जुन ने सिर पकड़कर हिलाया और कहा-भैस हो तुम? सम्मोहन टूट गया।
वीतरागता साध्य है। वीतराग आदर्श है। साधक आदर्श को सतत सामने रखे। राग-द्वेष को जीतकर ही वीतराग बना जा सकता है। वह उसके प्रति सदा जागृत रहे। राग-द्वेष की मुक्ति ही उपासना की स्थिति को उपास्य में परिवर्तित करती है।
१८. इन्द्रियाणि च संयम्य, कृत्वा चित्तस्य निग्रहम्। 
      संस्पृशन्नात्मनात्मानं, परमात्मा भविष्यसि।।
इन्द्रियों का संयम कर, चित्त का निग्रह कर, आत्मा से आत्मा का स्पर्श कर, इस प्रकार तू परमात्मा बन जाएगा।
परमात्मा होने का राज इस छोटी सी प्रक्रिया में निहित है। प्रत्याहार, प्रतिसंलीनता-यह योग साधना का एक अंग है। इसमें यही सूचित किया है कि इन्द्रिय और मन को बाहर से समेट कर केन्द्र पर ले आओ, जहां से इन्हें शक्ति प्राप्त होती है और उसी के साथ योजित कर दो। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जाओ। एक दिन परमात्मा का स्वर प्रगट हो जाएगा और तुम्हारा स्वर शांत हो जाएगा। जब तक तुम बोलते रहोगे, परमात्मा मौन रहेगा। उसे मुखरित होने का तुमने अवसर ही नहीं दिया। इन्द्रियों और मन की चेतना से जो युति है वही परमात्मा की अभिव्यक्ति का मूल स्रोत है।
१९. यल्लेश्यो म्रियते लोकस्तल्लेश्यश्चोपपद्यते। 
      तेन प्रतिपलं मेघ ! जागरूकत्वमर्हसि।।
यह जीव जिस लेश्या भावधारा में मरता है उसी लेश्या के अनुरूप गति में उत्पन्न होता है। इसलिए हे मेघ ! तू प्रतिपल आत्मा के प्रति जागरूक बन।