
गुरुवाणी/ केन्द्र
अध्यात्म में स्थापित होकर लें नश्वर शरीर का उत्कृष्ट लाभ : आचार्यश्री महाश्रमण
आगमवेत्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि जैन तत्त्व विद्या में शरीर के पाँच प्रकार बताए गए हैं — औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीर। अध्यात्म का दर्शन यह है कि आत्मा और शरीर दोनों अलग-अलग हैं। दोनों मिक्स हो सकते हैं, परन्तु दोनों का अस्तित्व, सत्ता अलग-अलग होती है। हमारी पूरी दुनिया में दो ही तत्त्व हैं — जीव और अजीव। सिद्ध भगवान विशुद्ध जीव हैं। पुद्गलास्तिकाय जैसे पदार्थ, पाटा आदि विशुद्ध अजीव हैं। प्राणी जैसे मनुष्य, कीड़े-मकौड़े आदि जीव-अजीव का मिश्रित रूप हैं। इस प्रकार तीन चीजें हो जाती हैं — शुद्ध जीव, शुद्ध अजीव और जीव-अजीव का मिश्रित रूप।
पाँच शरीरों में से हर मनुष्य के पास कम से कम तीन शरीर तो होते ही हैं — हाड़, मांस, खून से बना यह स्थूल शरीर औदारिक शरीर कहलाता है। यह शरीर दृश्य है। दूसरा सूक्ष्म शरीर तैजस शरीर और तीसरा सूक्ष्मतर शरीर कार्मण शरीर। व्यक्ति का जीवन पूरा होता है तो औदारिक शरीर तो यहाँ छूट जाता है, परन्तु तैजस और कार्मण शरीर अगले जन्म में भी साथ जाते हैं। कोई-कोई मनुष्य के साथ वैक्रिय शरीर भी हो सकता है और कोई-कोई साधु-संत पुरुष के पास आहारक शरीर की स्थिति भी हो सकती है। पाँच शरीर में तीन शरीर औदारिक, वैक्रिय और आहारक स्थूल शरीर हैं। औदारिक शरीर की एक विशेषता यह है कि मनुष्य को केवल ज्ञान होगा तो इस शरीर से ही होगा और जीव मोक्ष में जाएगा, वह इस शरीर को धारण करने वाला ही जाएगा।
‘आयारो’ में इस शरीर (औदारिक) के बारे में कहा गया है कि इस रूप को, इस शरीर को देखो — यह कैसा है? इसका भेद होने वाला है, यह शरीर नष्ट होने वाला है, विनाशधर्मा है, अनित्य, अशाश्वत है। आत्मा शाश्वत है, आत्मा अछेद्य है, अकाट्य है, अभेद्य है। आत्मा इतनी बड़ी है कि पूरे लोक में फैल सकती है। एक कुंथु जैसे प्राणी के छोटे से शरीर में भी वही आत्मा संकुचित हो जाती है। वही कुंथु यदि मरकर हाथी के रूप में पैदा हो तो कुंथु की आत्मा हाथी के शरीर में फैल जाएगी। आत्मा में संकोच और विकोच करने का सामर्थ्य होता है। शरीर विनाश को प्राप्त होता है — इस स्थिति को जानकर व्यक्ति यह सोचे कि शरीर रूग्ण हो सकता है, शरीर की शक्ति का ह्रास हो सकता है तो मैं इस शरीर से धर्म की, अध्यात्म की साधना कितनी कर सकता हूँ और कैसे कर सकता हूँ? गृहस्थ जीवन में भी मोक्ष की ओर कैसे गति, प्रगति की जा सके। इसके लिए जितना व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करेगा, वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ेगा। नव तत्त्वों को समझने का प्रयास करना चाहिए और कषायों को कृश, प्रत्तनु करने का प्रयास करना चाहिए। संवर और निर्जरा की साधना अच्छी होगी तो व्यक्ति मोक्ष की ओर भी आगे बढ़ सकेगा।
‘तेरापंथ प्रबोध’ की आख्यानमाला के क्रम को आगे बढ़ाने के पश्चात् ‘तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम’ का मंचीय कार्यक्रम हुआ। टीपीएफ का 18वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन प्रारंभ हुआ। इस संदर्भ में तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि रजनीशकुमारजी ने भावाभिव्यक्ति दी। राष्ट्रीय अध्यक्ष हिम्मत माण्डोत, मुख्य न्यासी एस. के. सिंघी ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। मुख्यमुनि श्री ने प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि अपनी बुद्धि का उपयोग जिन धर्म के आसेवन में करें। श्रद्धा संपन्न बनें, ज्ञान संपन्न बनें, चारित्र संपन्न बनें।
आचार्य प्रवर ने इस संदर्भ में पावन आशीष प्रदान करते हुए कहा कि ज्ञान पर आवरण होता है तो व्यक्ति अपने अच्छे-बुरे की पहचान भी नहीं कर पाता। कई लोगों में ज्ञान का बहुत अच्छा विकास होता है। पढ़ने वाले योग्यता के साथ डिग्री भी प्राप्त कर लेते हैं। ज्ञान में तर्क होना चाहिए और अनुशासन में सतर्क होना चाहिए। टीपीएफ बौद्धिक लोगों का संगठन है। यह समाज की एक शक्ति है। प्रोफेशनल लोग अपने कार्य के साथ धार्मिकता के क्षेत्र में भी अपना विकास करें और आगे भी अच्छा कार्य करते रहें। ऋतु चौरड़िया को 'टीपीएफ गौरव' अलंकरण प्रदान किया गया। कार्यक्रम का संचालन टीपीएफ के महामंत्री मनीष कोठारी ने किया।