चेतना के उर्ध्वारोहण का पर्व संवत्सरी

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साध्वी कनकरेखा

चेतना के उर्ध्वारोहण का पर्व संवत्सरी

भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। यहां अनेक धर्मों व पर्वों का अद्भुत संगम है। भारतीय संस्कृति में निखार लाने में पर्वों का बड़ा योगदान रहा है। पर्व अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे कुछ लौकिक, राष्ट्रीय, कुछ आध्यात्मिक पर्व होते हैं। जैन परंपरा में पर्युषण पर्व, महावीर जयंती, अक्षय तृतीया आदि धार्मिक पर्व मनाए जाते हैं, जिनके पीछे आत्मशुद्धि की प्रेरणा रहती है। धार्मिक पर्वों में भी श्रेष्ठ पर्व है पर्युषण पर्व, जिसे पर्वाधिराज महापर्व भी कहते हैं। पर्युषण पर्व से जैन समाज का हर सदस्य, चाहे छोटा हो या बड़ा, परिचित है। दिगंबर परंपरा में पर्युषण शब्द के स्थान पर ‘दशलक्षण’ शब्द प्रचलित है। वर्षभर में एक बार आने से इसे संवत्सरी भी कहते हैं।
पर्युषण जैनों का महापर्व है – यह जागरण का संदेश लेकर आता है। व्यक्ति को मूर्च्छा, प्रमाद, आलस्य से दूर हटाकर सच्चाई से परिचित कराता है। व्यक्ति को कुछ पाने की प्रेरणा देता है। यह पर्व आमोद-प्रमोद व शारीरिक साज-सज्जा का नहीं, संयम का पर्व है, जो व्यक्ति को पूर्णता की ओर प्रस्थान कराता है। भोग से त्याग की ओर, राग से विराग की दिशा का प्रेरक पर्व है। यह पर्व संपूर्ण मानवजाति का पर्व है। संवत्सरी न किसी तीर्थंकर की जन्म-जयंती या निर्वाण दिवस से जुड़ी हुई है और न किसी धर्म-सम्प्रदाय का प्रवर्तन दिवस है। यह मानवजाति की संस्कृति व सभ्यता के अभ्युदय का आदि दिवस है। इसलिए यह महापर्व की अभिधा को सार्थकता प्रदान करता है। जैन मतानुसार, उत्सर्पिणी के अंतिम चरण में मांसाहारी लोगों ने आज के दिन मांसाहार न करने का संकल्प लिया था, जिसे हम मानवता (अहिंसा) का प्रथम दिन मानते हैं। इस दृष्टि से इसका महत्व संपूर्ण मानवजाति के लिए है।
यह महापर्व प्रायः भाद्रपद शुक्ला पंचमी को मनाया जाता है। संवत्सरी पर्व श्वेतांबर समाज के लिए पर्युषण का अंतिम दिन है और दिगंबर समाज के लिए पर्युषण, यानी दशलक्षण का प्रथम दिन होता है। श्वेतांबर समाज में इस अष्टान्हिक उत्सव को जप, तप, स्वाध्याय, ध्यान, संयम साधना के साथ मनाया जाता है। दिगंबर समाज में इन दस दिनों में क्षमा, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम आदि दस धर्मों की आराधना की जाती है, जिससे चेतना का उर्ध्वारोहण होता है।
अलौकिक पर्व :
यह पर्व आमोद-प्रमोद का पर्व नहीं, अपितु अहिंसा, मैत्री, सौहार्द व सहअस्तित्व की भावना जन-जन तक पहुंचाने वाला अलौकिक पर्व है। पर्युषण आते ही जीवन में नई चेतना का संचार होता है। जीवन में चालू व्यवहारों व कार्यों से हटकर कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। सुविधावादी व स्वार्थप्रधान जीवनशैली में परमार्थ की बात बताता है। इसीलिए पर्युषण आते ही बच्चे, युवा व वृद्धों में भी कुछ करने का उत्साह पैदा होता है। इस पर्व के साथ लाखों लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। अति-व्यस्तता के बावजूद भी इस पर्व को सर्वाधिक महत्व देते हैं। कभी सामायिक, उपवास, पौषध नहीं करने वाले भी इस दिन करते हैं। जो बच्चे खाने व खेलने में मस्त रहते हैं, वे भी इन दिनों में चादर ओढ़े, मुखवस्त्रिका बांधे हुए धर्मस्थान में बैठे मिलते हैं। यही पर्व की अलौकिकता है।
अहिंसा का महान पर्व :
प्राचीन समय में भारत देश अहिंसा, मैत्री व अध्यात्म की भावना से ओतप्रोत तथा चारित्रिक ऊंचाई के लिए प्रसिद्ध था। वहीं आज भौतिकवाद की ओर तेजी से बढ़ रहा है। ऐसा लगता है मानो आमोद-प्रमोद ही जिंदगी का लक्ष्य बन गया है। शरीर की सुंदरता बढ़ाने के लिए कैसी-कैसी साधन-सामग्री का उपयोग करता है, पर यह भूल जाता है कि इन्हें तैयार करने में कितने निरीह प्राणियों की क्रूरतापूर्वक हत्या हो जाती है। आज कॉस्मेटिक सामान की दुकानें बढ़ती जा रही हैं। इसका मुख्य कारण है – बढ़ती हुई सौंदर्य-लिप्सा। सौंदर्य-पिपासा सामान्य लगती है, किन्तु इसने अनर्थ हिंसा को बढ़ावा दिया है तथा अहिंसक कहलाने वाले समाज के लिए प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। जिसका मन अपवित्र है, उसका बाह्य सौंदर्य भी खतरे से खाली नहीं। आज आवश्यकता है कि व्यक्ति-व्यक्ति में प्राणीमात्र के प्रति संवेदनशील व करुणा का भाव जगाया जाए।
आत्मनिरीक्षण पर्व :
हर व्यक्ति विश्व की जानकारी रखता है, पर स्वयं के बारे में नहीं जानता। दूसरों की गलतियों को देखता है, पर स्वयं की गलतियों को नजरअंदाज कर देता है। सही माने में, मनुष्य ने दूसरों को देखने में अनंत जन्म बिता दिए, किंतु अपने भीतर क्या है, आज तक नहीं देखा। पर्युषण पर्व आत्मनिरीक्षण का पर्व है। यह अतीत के सिंहावलोकन की प्रेरणा देता है। हम लेखा-जोखा करें – पूरे वर्षभर में क्या खोया, क्या पाया। उन क्षणों को याद करें, जिन्होंने हमारे जीवन को बर्बाद किया। हम अतीत को देखें, वर्तमान में जीते हुए सुखद भविष्य की शुरुआत करें। क्योंकि छिलके को देखने वाला बाहरी रंग व आकार से परिचित होता है, भीतर के रंग-रूप व गुण से नहीं। जिन्होंने अपने भीतर को देखा वे तर गए। अपने को देखने वाला अंतर्दृष्टि को प्राप्त होता है। हमारे भीतर अनिर्वचनीय आनंद का खजाना है। उसको पाने के बाद अब तक का देखा, सुना और चखा हुआ सब फीका लगता है।
क्षमापर्व :
व्यक्ति सामाजिक प्राणी है, परिवार व समाज के बीच जीवन जीता है। समाज में रहते हुए अनेक कार्य संपादित करता है, व्यवहार निभाता है। उसमें जाने-अनजाने अनेक भूल कर बैठता है। आवेश व अहंकार में कटु शब्दों का प्रयोग भी कर लेता है। यह कटुता आपसी दूरी, हिंसा व वैरभाव को पैदा करती है। यह पर्युषण पर्व क्षमा के आदान-प्रदान का अद्वितीय पर्व है, जो ग्रंथि-विमोचन का अवसर प्रदान करता है। जब तक हृदय की गांठ खोलकर आदान-प्रदान नहीं होता, तब तक मन की शुद्धि नहीं होती। जैन दर्शन के अनुसार वह सम्यक्त्वरत्न रहित हो जाता है। गांठ चाहे लकड़ी में हो या शरीर में – कहीं भी अच्छी नहीं। जीवन को सरस व आनंदमय बनाने के लिए क्षमायाचना अत्यंत उपयोगी है। इसके लिए भगवान महावीर ने महत्वपूर्ण सूत्र प्रदान किया –
खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु में।
मित्ति में सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणई।।
भगवान महावीर का संदेश मानवता का संदेश है। यदि इसे संपूर्ण मानवजाति स्वीकार कर ले तो अनेक समस्याओं का समाधान सहज हो जाता है। मैत्री पर्व को मनाने की परंपरा केवल जैन समाज में ही प्रचलित है, पर यह पर्व यदि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाए तो हिंसा, आतंक की समस्या स्वतः समाहित हो सकती है।