
गुरुवाणी/ केन्द्र
संकल्पजा हिंसा से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता ज्योतिपुंज युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण ने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए कहा कि 27 भवों की श्रृंखला में अठारहवें भव में भगवान महावीर राजपरिवार में त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में जन्मे थे। क्षेत्र में शेर की समस्या के निराकरण हेतु व्यवस्था की गई कि एक-एक राजा उस क्षेत्र में पहरा लगाए ताकि किसानों की सुरक्षा हो सके। इसी क्रम में पोतनपुर राजा प्रजापति की भी बारी आई। राजा प्रजापति जाने के लिए उद्यत हुए तो त्रिपृष्ठ ने पिताजी को जाने हेतु मना किया और आज्ञा लेकर अपने भाई अचल को साथ लेकर उस क्षेत्र की ओर रवाना हो गए।
दोनों भाई शेर की गुफा की ओर गए और जोर से नाद किया। शेर नाद सुनकर क्रोधित हुआ और आक्रामक होकर बाहर आया। निकट आने पर शेर त्रिपृष्ठ की ओर झपटा। त्रिपृष्ठ ने शेर के दोनों जबड़ों को पकड़ कर चीर दिया और शेर का प्राणान्त हो गया। यहां शेर की हिंसा हुई है, परन्तु इसके पीछे मुख्य लक्ष्य था किसानों की सुरक्षा। इसलिए यह कार्य करना पड़ा। इसी प्रकार देश रक्षा के लिए भी सैनिकों को हथियार उठाने पड़ते हैं। हिंसा तीन प्रकार की होती है- 1. आरंभजा, 2. संकल्पजा, 3. प्रतिरोधजा। हमें संकल्पजा हिंसा से बचना चाहिए। आवश्यक हिंसा में भी राग-द्वेष से बचना चाहिए।
पूज्यप्रवर ने त्रिपृष्ठ के प्रथम वासुदेव एवं अचल के प्रथम बलदेव बनने का वर्णन किया और बताया कि वासुदेव ने इस जन्म में अनेक हिंसक कार्य किए और नियम है कि वासुदेव की अगली गति नरक की होती है। अतः प्रभु महावीर का जीव त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव के बाद सातवीं नरक में जन्म लेकर तैंतीस सागरोपम का उत्कृष्ट आयुष्य भोगता है। सातवीं नरक से निकलकर शेर के रूप में जन्म लिया। इस बीसवें भव का आयुष्य पूर्ण कर, इक्कीसवें भव में चौथी नरक में पैदा होता है। नरक से निकलकर नयसार के जीव ने अनेक छोटे-छोटे भव किए।
तेइसवें भव में मनुष्य के रूप में पश्चिम महाविदेह क्षेत्र की मूका नगरी में राजा धनंजय और रानी धारिणी के पुत्र प्रियमित्र के रूप में जन्म लेते हैं। प्रियमित्र बड़ा हुआ। माता-पिता ने उत्तराधिकार प्रियमित्र को सौंपकर दीक्षित हो गए और प्रियमित्र चक्रवर्ती बन गया। प्रियमित्र भी पोट्टिलाचार्य के पास साधु बन गया। यहां का आयुष्य पूर्ण कर चौबीसवें भव में महाशुक्र नामक पांचवें देवलोक में जन्म हुआ। वहां का आयुष्य संपन्न कर देवलोक से च्युत होकर पच्चीसवें भव में छत्रा नामक नगरी में जन्म हुआ। वहां के महाराज जितशत्रु और महारानी भद्रा के यहां राजकुमार नंदन का जन्म हुआ। पिता जितशत्रु ने नंदन को राज्याधिकार सौंपा और स्वयं साधु बन गए।
राजा बनने के बाद गार्हस्थ जीवन में समय बिताकर नंदन ने पोट्टिलाचार्य के पास संयम ग्रहण कर लिया। राजर्षि नंदन ने एक लाख वर्ष तक साधुत्व पाला। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। इसके बाद कठोर तप किया और ग्यारह लाख साठ हजार मास खमण किए। तपस्या और अर्हत् भक्ति के परिणाम स्वरूप तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का उपार्जन किया। इस भव का आयुष्य संपन्न कर प्रभु की आत्मा प्राणत नामक दसवें देवलोक में उत्पन्न हुई। इससे पूर्व मुख्य मुनि प्रवर ने दस धर्मों के अंतर्गत तप-त्याग धर्म पर अपनी विवेचना प्रस्तुत करते हुए कहा कि जब तक हमारे भीतर यह अनुभूति नहीं होगी कि आत्मा और शरीर भिन्न हैं तब तक तप और त्याग का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह सकता। जो हमारे पूर्वबद्ध कर्मों को क्षय करता है, वह तप है। दूसरी परिभाषा है कि जो भी हमारा शुभ योग है, वह तप है। तप के दोनों प्रकार- बाह्य और आभ्यंतर का अपना-अपना महत्त्व है। इसी प्रकार त्याग का महत्त्व राजा दर्शाण भद्र के कथानक के माध्यम से विवेचित किया।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने जप दिवस पर अपनी अभिव्यक्ति देते हुए जप शब्द की व्याख्या की। ‘ज’ शब्द हमारे जन्म की परंपरा को समाप्त करने वाला और ‘प’ हमारे पापों का नाश करने वाला होता है। जप के प्रकंपन हमारे शरीर, भावों और वातावरण को प्रभावित करते हैं। मंत्रोच्चारण करते समय उसके अर्थबोध के साथ मंत्र का देखना भी आवश्यक होता है। मुनि जम्बूकुमारजी (मिंजूर) ने भगवान अरिष्टनेमि के जीवन प्रसंगों का वर्णन किया। साध्वी दीप्तियशाजी व साध्वी रक्षितप्रभाजी ने जप दिवस पर आधारित गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।