
गुरुवाणी/ केन्द्र
बोलने और मौन करने में विवेक रखना है महत्वपूर्ण : आचार्यश्री महाश्रमण
अहिंसा यात्रा के प्रणेता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुनि मरीचि साधु संस्था से मुक्त हो गया और किसी मध्यम मार्ग का निश्चय किया तथा तपस्वी साधक का वेश बनाया। उसने गेरुआ कपड़े धारण किए, त्रिदण्ड पास में रखा, छत्र धारण किया। साधक मरीचि ने त्रिदण्ड पास में रखने का कारण बताया कि साधु तो मन, वचन, काया के दण्डों को जीतने वाले होते हैं, पर मैं मन, वचन, काया के दण्डों से पराजित हो गया हूँ। इस बात को द्योतित करने के लिए मैं त्रिदण्ड अपने पास रखूँगा। छत्र इसलिए धारण करूँगा कि मुझ पर अभी मोह का आवरण है। इस वेश के साथ मरीचि ने साधक, तपस्वी का जीवन शुरू कर दिया। स्नान आदि में सीमित जल का प्रयोग करता। साधुओं में मुनिचर्या की सौरभ होती है, परन्तु मुझमें वह नहीं है, इसलिए मैं चन्दन का लेप करूँगा। पैरों में खड़ाऊँ पहनूँगा। लेकिन मुख्य बात यह भी थी कि अब मैं घर भी नहीं लौटूँगा।
एक दिन चक्रवर्ती महाराज भरत ने भगवान ऋषभ से एक प्रश्न पूछा कि, भगवन्, आपके समवसरण में ऐसा कोई जीव है क्या, जो इस अवसर्पिणी में आपकी तरह इस भरत क्षेत्र में तीर्थंकर बनने वाला है? भगवान ऋषभ ने फरमाया कि समवसरण के अन्दर तो नहीं है, परन्तु बाहर बैठा तुम्हारा पुत्र मरीचि इसी अवसर्पिणी में, इसी भरत क्षेत्र में अंतिम तीर्थंकर बनने वाला है। त्रिपृष्ठ रूप में पहला वासुदेव भी बनेगा और महाविदेह की मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती भी बनेगा। भरत ने यह संवाद मरीचि को सुनाया तो मरीचि में संभवतः थोड़ा गर्व का भाव उत्पन्न हुआ कि मेरे कुल का क्या कहना? मेरे दादाजी इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिताजी प्रथम चक्रवर्ती और मैं इसी अवसर्पिणी का पहला वासुदेव बनूँगा, मूका नगरी में चक्रवर्ती बनूँगा और यहाँ का अंतिम तीर्थंकर बनूँगा। मेरा कुल कितना उत्तम है! किन्तु वास्तव में आदमी को किसी भी चीज का मद नहीं करना चाहिए।
अध्यात्म यात्रा के पश्चात् ‘वाणी संयम दिवस’ के संदर्भ में प्रेरणा-पाथेय प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि वाणी का संयम तो अच्छा है ही, परन्तु साथ में वाणी का विवेक होना भी आवश्यक है। मौन करना और बोलना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है बोलने और मौन करने में विवेक रखना। साधु बहिर्विहार में जाते हैं तो अग्रगण्य को कम से कम आठ प्रहरों में से एक प्रहर, यदि स्वास्थ्य अनुकूल हो, तो प्रवचन में अवश्य जाना चाहिए। जहाँ बोलने की आवश्यकता हो वहाँ बोलना भी साधना है, कर्म-निर्जरा है। इसलिए बोलने और न बोलने में विवेक रखना चाहिए।
मुख्यमुनि श्री ने दस धर्मों में लाघव धर्म और सत्य धर्म पर अपनी अभिव्यक्ति देते हुए कहा कि लाघव का अर्थ है हल्का बनना, द्रव्य से अल्पोपभोगी होना और भाव से रिद्धि, रस, सात गौरव आदि का परित्याग करना। लाघव धर्म हमें बाहर और भीतर दोनों ओर से हल्का रहने की प्रेरणा देता है। सत्य धर्म के बारे में कहा कि आत्म-शुद्धि, आत्म-उपलब्धि, आत्म-साक्षात्कार और आत्मा के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण सोपान है सत्य की साधना।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने वाणी संयम दिवस पर अपनी भावाभिव्यक्ति देते हुए कहा कि शास्त्रों में अनेक स्थानों पर वाणी के विवेक के निर्देश प्राप्त होते हैं। कोई व्यक्ति प्रयोजन से बोलता है तो वह भी मितभाषी है। जब व्यक्ति वचन-गुप्ति करता है तो वह अपना हित साधता है और भाषा-समिति का अभ्यास करने वाला व्यक्ति अपने साथ-साथ दूसरों का भी हित साधता है। वाणी को भी हमेशा मधुर बनाए रखना चाहिए। मुनि रत्नेशकुमारजी ने तीर्थंकर शांतिनाथ भगवान के जीवन प्रसंगों का वर्णन किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।