
स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
आचार्य भिक्षु ने कहा – 'नहीं, न तुम्हारे पास अतीन्द्रीय ज्ञान है और न आचार्य के पास। दोनों अपने-अपने मतिश्रुत ज्ञान के आधार पर निर्णय कर रहे हो, इस स्थिति में सोचो कि एक तरफ आचार्य का चिन्तन है और एक तरफ तुम्हारा। तुम्हारी अपेक्षा आचार्य का उत्तरदायित्व अधिक है। इसलिए व्यवहार में आचार्य अपनी शुद्ध नीति से जो निर्णय दे, वह सही है और निश्चय में यथार्थ वह है जो सर्वज्ञों की दृष्टि में सही है।'
शास्त्रकारों का कथन है कि आचार्य अपनी शुद्ध नीति से जो निर्णय देते हैं उसको सम्यग् मानकर आचरण करने वाले साघु-साध्वी आराधक हैं। आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ धर्म संघ में कुछ ऐसी विलक्षण लक्ष्मण-रेखाएं खींचीं, जिनके भीतर रहने वाला साधक निर्बाधगति से साधना-पथ पर अग्रसर हो सकता है। मर्यादा पुरुष आचार्य भिक्षु ने अनुशासन पर अत्यधिक बल दिया। अनुशासन की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करने वाले के विरुद्ध तेरापन्थ संघ में कड़ी कार्यवाही की, जिसको निम्न घटना के माध्यम से जान सकते हैं–
संवत् १९३८ की घटना है। जयाचार्य जयपुर में विराज रहे थे। जीवन का अन्तिम वर्ष चल रहा था। संघीय व्यवस्था का संचालन मुख्यतया युवाचार्यश्री मघवा कर रहे थे। जयाचार्य का अधिकतम समय स्वाध्याय ध्यान में ही लग रहा था। सायंकालीन प्रतिक्रमण प्रारम्भ हो गया। युवाचार्यश्री आचार्यवर के पास ही बैठे थे! एक साधु (जुहारजी) शौच बाहर जंगल में गये थे। वे लौटे तब कुछ अंधेरा हो गया। युवाचार्यश्री ने कहा- 'इतनी देर कैसे की? सूर्यास्त कब का हो चुका, जल्दी आना चाहिए? भविष्य में ध्यान रखना। आज देरी की उसके लिए पांच कल्याणक (प्रायश्चित का एक माप विशेष) स्वीकार करो।'
साधु बोला-दैहिक आवश्कयता है। देरी हो गई, उसका मैं क्या करूं? मैं प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करूंगा। युवाचार्यश्री मौन रहे। जयाचार्य ने ध्यान सम्पन्न कर उस साधु को बुलाया। प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करोगे, यह निर्णय है तुम्हारा? आचार्यवर ने पूछा। 'क्या यह अनुशासन की अवहेलना नहीं है? तुमने अनुशासन का भंग किया है, इसलिए मैं तुम्हारा संघ से संबंध-विच्छेद करता हूं।' उस साधु ने सोचा भी नहीं होगा कि अनुशासन-भंग का यह परिणाम होगा।
वस्तुतः अनुशासन एक लक्ष्मण रेखा है, जो क्रूर-वृत्तियों को भीतर प्रविष्ट होने का प्रवेश-पत्र नहीं देता। अनुशासन एक असंदीन द्वीप है जो अथाह जल- राशि में घिरे व्यक्ति को त्राण देता है। २१वीं सदी में प्रवेश करने वाला मानव यदि वर्तमान की ज्वलन्त समस्या स्वेच्छाचारिता और अनुशासनहीनता से मुक्ति पाना चाहे तो मर्यादा संजीवनी का काम कर सकती है। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में वही संघ बन सकता है जहां मर्यादाओं का सम्मान होता है, उन्होंने कहा है-
मर्यादा सद्गुरोराज्ञा, यत्र प्राणाधिकामता।
आद्रता-व्यापृता स्फीता, स संघः संघ उच्यते ।।
क्रांतिकारी आचार्य भिक्षु ने साधना के दीवट पर मर्यादा का जो दीप जलाया, उसके प्रकाश में हर साधक अपना पथ ही आलोकित नहीं करता, अपितु मंजिल तक पहुंचने का सप्रयास करता है।
जिनवाणी के प्रति समर्पित व्यक्तित्व
आचार्य भिक्षु बुद्धि, आस्था और आचारनिष्ठा के संगम के उदाहरण थे। कुछ व्यक्ति आचारनिष्ठ होते हैं पर उनमें प्रज्ञा व औत्पत्तिकी बुद्धि नहीं होती है। कुछ व्यक्ति आस्थाशील होते हैं, पर आचार-पालना में दुर्बलता का अनुभव करते हैं। कुछ व्यक्ति नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से संपन्न होते हैं पर श्रद्धा व चरित्र में निपुण नहीं होते। भिक्षु में जहां आचारनिष्ठा का अजस्र स्रोत प्रवाहित था, वहां प्रज्ञा और जिनवाणी के प्रति अटूट आस्था का साहचर्य भी था।
महामना भिक्षु कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। वे उस बुद्धि को महत्त्व नहीं देते थे जो पापकर्मों में प्रवृत्त हो। जोधपुर के राजा विजयसिंहजी के मंत्री आचार्य भिक्षु के पास आए। अनेक प्रश्न पूछे। स्वामीजी ने उन्हें प्रश्नों का समाधान दिया। सन्तोषजनक समाधान पाकर मंत्री ने कहा- 'आपको बुद्धि तो ऐसी है कि आप किसी राजा के मंत्री होते तो अनेक देशों का राज्य उस राजा के अधीन कर देते।'