
गुरुवाणी/ केन्द्र
संवर और निर्जरा की साधना से लड़ा जा सकता है कर्मों से मुक्ति का युद्ध : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, तीर्थंकर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए कहा कि “युद्ध के योग्य सामग्री निश्चित ही दुर्लभ है।” यहाँ जिस युद्ध की बात है, वह बाहरी युद्ध नहीं है—न दो राष्ट्रों के बीच का युद्ध और न ही परिवारों में होने वाला कलह। यहाँ आत्म-युद्ध की चर्चा है।
आत्म-युद्ध का तात्पर्य है—कर्मों द्वारा आत्मा पर जो कब्जा है, उससे आत्मा को मुक्त करना। अनादिकाल से आत्मा कर्मों से बंधी हुई है। ये कर्म आत्मा को विकृत कर देते हैं, ज्ञान-दर्शन को आवृत कर देते हैं, शक्ति को बाधित कर देते हैं और जन्म-मृत्यु के चक्र में घुमाते रहते हैं। परिणामस्वरूप जीव दुःख का अनुभव करता है। इस दुःख की जड़ कर्म हैं। अतः आवश्यक है कि आत्मा को कर्मों के कब्जे से मुक्त किया जाए। जब यह स्थिति बन जाएगी, तब न दुःख रहेगा और न जन्म-मृत्यु का चक्र। धर्म और अध्यात्म की सारी साधना वस्तुतः कर्मों से मुक्ति का युद्ध है। यह युद्ध संवर और निर्जरा की साधना से लड़ा जा सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि यह महान युद्ध केवल मनुष्य योनि में ही संभव है। औदारिक शरीर के माध्यम से तपस्या, साधना, धर्माराधना और धार्मिक सेवा द्वारा कर्मों को काटा जा सकता है और संवर से नए कर्मों के आगमन को रोका जा सकता है। संवर की साधना तिर्यंच गति में भी हो सकती है, लेकिन वह अपर्याप्त है। मनुष्य जीवन में ही इसकी परिपूर्ण साधना संभव है। इसलिए यह मनुष्य जन्म अत्यंत दुर्लभ है। शास्त्रों में चार वस्तुएँ दुर्लभ बताई गई हैं—पहला, मनुष्य जन्म; दूसरा, धर्म-श्रवण का अवसर; तीसरा, धर्म पर श्रद्धा; और चौथा, संयम में पराक्रम। जिनके पास मनुष्य जन्म है, उनके लिए यह एक युद्ध की सामग्री पहले से उपलब्ध है।
आठ दिनों का अष्टान्हिक कार्यक्रम भी इस युद्ध की प्रक्रिया का ही एक भाग था। सामूहिक रूप में साधना हुई और भगवती संवत्सरी उस कार्यक्रम का उत्कृष्ट दिन रहा। भगवान महावीर ने इसी औदारिक शरीर का उपयोग कर परम सुख को प्राप्त किया। शब्द, गंध, रूप और स्पर्श से मिलने वाले पौद्गलिक सुख नश्वर और भंगुर हैं। वे सुख नहीं, दुःख का कारण बन सकते हैं। धर्मयुद्ध अथवा आत्म-युद्ध में पौद्गलिक सुखों का स्थान नहीं है, वहाँ केवल अध्यात्म-सुख का महत्व है। मनुष्य के चित्त में शांति और मनोबल बना रहना चाहिए। शारीरिक स्वस्थता के साथ मानसिक प्रसन्नता एक बड़ी उपलब्धि है। यदि कठिनाई भी आए तो हमें धैर्य बनाए रखना चाहिए। इस मानव जीवन में हमें धर्माराधना के लिए समय अवश्य निकालना चाहिए। सामायिक का समय न भी हो, तो संवर की साधना की जा सकती है। भले ही हम कर्मों के साथ बड़ा युद्ध न कर सकें, पर धीरे-धीरे करते हुए कर्म रूपी चट्टान को तोड़ने में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
संसारी अवस्था में जीव के साथ तैजस और कार्मण शरीर चलते हैं। कार्मण शरीर के आधार पर ही अगले जन्म में पुण्य और पाप का फल मिलता है। इसलिए हमें यह सोचना चाहिए कि वर्तमान की सुख-सुविधाएँ पूर्व जन्म के पुण्यों का भोग हैं, लेकिन भविष्य के लिए हम क्या संचय कर रहे हैं? और इससे भी ऊँची साधना है—संवर और निर्जरा—जिससे पुण्य और पाप से ऊपर उठकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः इस मानव जीवन का सदुपयोग आत्मा की शुद्धि हेतु करना चाहिए। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने नव तत्त्वों में से ‘निर्जरा’ और उसके बारह भेदों में ‘विनय’ को व्याख्यायित कर उसके महत्व पर प्रकाश डाला। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में रतनगढ़-कोलकाता के स्व. बुद्धमल दुगड़ का परिवार आध्यात्मिक संबल हेतु उपस्थित हुआ। आचार्यश्री ने परिजनों को आध्यात्मिक संबल प्रदान किया। साध्वीप्रमुखाश्री एवं मुख्य मुनि प्रवर ने भी दुगड़ परिवार को आत्मिक शक्ति प्रदान की। मुनि दिनेश कुमारजी, मुनि कुमार श्रमणजी, मुनि योगेश कुमारजी, मुनि कीर्ति कुमारजी, मुनि विश्रुत कुमारजी और मुनि ध्यान मूर्तिजी ने भी अपनी अभिव्यक्ति दी।