आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

उपसंपदा के सूत्र

(क्रमश:) बुद्ध एक पल मुसकराए और बोले‘शिष्यो! मैं अपनी भूल का परिमार्जन कर रहा हूँ। कुछ क्षण पहले एक मक्खी मेरे ऊपर बैठी थी, उसको मैंने उड़ा तो दिया, पर ज्ञानपूर्वक नहीं उड़ाया। उस समय मैं जागरूक नहीं था। मेरा मन कहीं और था और हाथ ने यंत्र की भाँति ऊपर उठकर मक्खी को भगा दिया। अपनी उस लापरवाही का बोध होने के बाद मैं पूर्ण जागरूकता के साथ मक्खी उड़ाने का अभ्यास कर रहा हूँ ताकि भविष्य में यह लापरवाही बढ़े नहीं।’ शिष्यों ने सुना और समझा भावक्रिया का रहस्य। यह भावक्रिया ही ऐसा तत्त्व है जो व्यक्‍ति को अपनी बुरी आदतों और दुष्प्रवृत्तियों के प्रति जागृत करता है। इसके अनुसार व्यक्‍ति क्रोध भी करे तो उसे भान होना चाहिए कि मैं अभी क्रोध की अवस्था में हूँ। जागृत दशा में होने वाला क्रोध उतना घातक नहीं होता, जितना बेहोशी में किया गया क्रोध होता है। अच्छाई हो या बुराई, उसके प्रति जागरूक रहने से ही वृत्तियाँ उदात्त हो सकती हैं। चेतना के ऊर्ध्वारोहण या वृत्तियों के उदात्तीकरण के लिए भावक्रिया की साधना बहुत लाभप्रद है।
प्रश्‍न : उपसंपदा के ये पाँचों सूत्र बहुत व्यावहारिक हैं और इनकी उपयोगिता भी निर्विवाद है। किंतु समस्या यह है कि ये सब जीवन में आ कैसे सकते हैं?
उत्तर : सामान्यत: उपसंपदा की स्वीकृति के साथ साधी जाने वाली ये पाँचों बातें प्रतिोत की दिशाएँ हैं। अनुोत में चलना बहुत सरल है। एक छोटे से तिनके को पानी के प्रवाह में डाल दिया जाए तो वह प्रवाह के साथ बहता हुआ सैकड़ों-हजारों मील तक जा सकता है। किंतु प्रतिोत में उसकी गति अवरुद्ध हो जाती है। मनुष्य भी स्वभाव से अनुोतगामी होता है। प्रतिोत में चलने के लिए अतिरिक्‍त क्षमता और साहस की जरूरत होती है। प्रेक्षाध्यान का साधक जिस समय ध्यान की उपसंपदा स्वीकार करता है, प्रतिोत में चलने का संकल्प स्वीकार कर लेता हैं संकल्प पुष्ट होता है तो उपर्युक्‍त सूत्रों की साधना भी स्वाभाविक हो जाती है। संकल्प की शिथिलता में ये सूत्र भी बड़े कठिन और दुरूह प्रतीत होने लगते हैं। उपसंपदा के इन पाँचों सूत्रों को आत्मसात करने के लिए साधक को अपने लक्ष्य से प्रतिबद्ध होकर चलना होगा। लक्ष्य-प्रतिबद्धता के बाद कोई भी स्थिति साधक के मार्ग में अवरोध नहीं बन सकती।

ध्यान की पूर्व तैयारी

अब प्रेक्षा की गतिविधि और क्रमिक अभ्यास।
करूँ विवेचन शांतमन साधिकार सव्यास॥
प्रात: पश्‍चिम रात में साधक बने सचेत।
नित्य कर्म से निबट सब हो जाएँ समवेत॥
द्वंद्व विचारों का सघन चलता है दिन रात।
उससे मानस मुक्‍त हो सबसे पहली बात॥
प्रश्‍न : प्रेक्षाध्यान का सैद्धांतिक पक्ष आपने बतला दिया। उसका कोई व्यावहारिक पक्ष भी है?
उत्तर : साधन की प्रत्येक पद्धति सिद्धांत और व्यवहारइन दो तटों के मध्य प्रवहमान धारा है। जिस पद्धति के पीछे कोई सैद्धांतिक आधार नहीं होता, वह पद्धति दीर्घकाल तक टिक नहीं सकती और जिस सिद्धांत की क्रियान्विति नहीं होती, वह उपयोगी नहीं बन सकता। आज तक न जाने कितनी साधना-पद्धतियाँ आविर्भूत होकर विलीन हो गईं, क्योंकि उनके सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष पुष्ट नहीं थे। प्रेक्षाध्यान के तत्त्व जैन आगमों में विकीर्ण हैं। जैन आचार्य समय-समय पर उन सिद्धांतों को काम में लेते रहे हैं, पर किसी कारण से वे उनकी व्यावहारिक पद्धति को प्रस्तुति नहीं दे सके। इसलिए ध्यान की धारा रुक-रुककर प्रवाहित हुई। उस अवरोध को तोड़ने के लिए यह आवश्यक था कि ध्यान-साधना का व्यावहारिक पक्ष व्यवस्थित रूप में उजागर हो। उसका प्रायोगिक रूप सबके लिए सुलभ हो, इस द‍ृष्टि से प्रेक्षा का पूरा साधना-क्रम निश्‍चित किया गया है। प्रेक्षाध्यान की गतिविधि क्या है। और उसका अभ्यास क्रम क्या है? इस संबंध में विवेचन करने के लिए तीन बातें आवश्यक हैंशांत मन, अधिकारपूर्ण वक्‍तव्य और विस्तार से तत्त्व निरूपण। अभ्यास की सामान्य पद्धति में पहला काम हैजागरण। रातभर सोने के बाद प्रात: नींद को छोड़ना आवश्यक है। नींद छोड़कर जागने का सामान्य समय है, पश्‍चिम रात्रि। जो साधक चार बजे के आस-पास उठ जाते हैं, वे अपनी साधना का सम्यक् संचालन कर सकते हैं। जिन लोगों के सोने और जागने का समय नियमित नहीं होता, जो देर से सोते हैं और देर से ही उठते हैं, उनकी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो जाती है। ऐसे लोग साधक नहीं बन सकते।
प्रश्‍न : ताने फकीर से किसी ने पूछा‘आपकी साधना क्या है?’ फकीर ने उत्तर दिया‘नींद आती है, तब सो जाता हूँ। भूख लगती है, तब खा लेता हूँ। नींद खुलती है, तब उठ जाता हूँ। बोलने की इच्छा होती है, तो बोल लेता हूँ। अन्यथा मौन रहता हूँ।’ शयन और जागरण के संबंध में ताने फकीर का यह सिद्धांत कैसा है? चार बजे नियमित रूप से किसी साधक की नींद न टूटे और उसे उठाना पड़े तो उसकी क्रियाओं में सुस्ती रहती है तथा ध्यान में भी वह ऊँघने लगता है। ऐसी स्थिति में जब नींद खुले, तभी जागरण का समय उपयुक्‍त नहीं है क्या?
उत्तर : व्यक्‍तिगत रूप से साधना करने वाला और साधना की प्रारंभिक भूमिकाओं को पार कर लेने वाला साधक कुछ द‍ृष्टियों से अप्रतिबद्ध हो जाता है। अग्रिम भूमिकाओं में स्वाभाविक रूप से जीना साधना का एक अंग बन सकता है। किंतु जिन्होंने अभी साधना का प्रारंभ ही किया है और जो इस क्षेत्र में कुछ सीखना चाहते हैं उन्हें तो व्यवस्थित और नियमित चर्या का अभ्यास करना ही होगा। निश्‍चित समय पर उठने से आलस्य और ऊँघ की जो बात कही गई, वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि अभ्यास के द्वारा ऐसी आदत निर्मित की जा सकती है, जो व्यक्‍ति को ठीक समय पर नींद से उठा देती है। अन्यथा निद्रा का तो यह हाल है कि आदमी उसे जितना चाहे, बढ़ा-चढ़ा सकता है। कहा भी गया
आलस्यं मैथुनं निद्रा, क्षुधा क्रोधश्‍च पंचम:।
पंच वर्धन्ति कौन्तेय! सेव्यमानानि नित्यश:॥
(क्रमश:)