धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

राजनगर के श्रावकों को प्रतिबोधित करने के लिए मुनि भीखणजी को वहां भेजा गया। अपनी बुद्धिमत्ता तथा वैराग्य की ख्याति के आधार पर उन्होंने उन श्रावकों को झुका भी लिया। पर रात्रि के तीव्र ज्वर से स्वयं मुनि भीखणजी प्रतिबुद्ध हो गए। उन्होंने सत्य-संधित्सु बन आगम-पारावार का मंथन किया। उससे उन्हें जो जिनवाणी का अमृत मिला, उसका पान कर वे सत्यार्थ, सब कुछ त्यागने के लिए कृतसंकल्प हो गए। जिनवाणी पर समर्पण नहीं होता तो वे ऐसा नहीं कर सकते थे; क्योंकि स्थानकवासी संघ में उनके मान-सम्मान की कमी नहीं थी।
श्री भिक्षु की श्रद्धा सत्य से संपृक्त थी। सत्य उनके लिए भगवान था। वे उसकी सुरक्षा के लिए कटिबद्ध थे। एक बार कुछ दिगम्बर जैन श्रावक आचार्य भिक्षु के पास आए। उन्होंने कहा-महाराज! आपका आचार और अधिक चमक उठे यदि आप वस्त्र न पहनें। स्वामीजी ने कहा- 'हमने श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर साधुत्व स्वीकार किया है और उनमें साधु को वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है। जिस दिन दिगम्बर-सिद्धान्तों पर हमारी आस्था हो जाएगी, हम निर्वस्त्र बन जाएंगे।'
आचार्य भिक्षु द्वारा प्रणीत राजस्थानी साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि उनकी चेतना जिनवाणी से ओत-प्रोत थी। एक-एक बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अनेक आगम-प्रमाण प्रस्तुत किए हैं।
पणया वीरा महावीहिं- वीर पुरुष महापथ के प्रति समर्पित होते हैं।
आणाए मामगं धम्म – आज्ञा में मेरा धर्म है।
आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरइ – आज्ञा में उपस्थित मेधावी व्यक्ति मृत्यु अथवा काम का पार पा जाता है।
आयारो के उपर्युक्त निर्देश उनके जीवन के अभिन्न अंग बने हुए थे। स्वामीजी ने जिनवाणी के आधार पर ही धर्मक्रान्ति की और तद्‌नुसार जीवन जीया। उनकी अटल आस्था और सत्यशोधी दृष्टि क्रान्ति की बात सोच सकने वालों के लिए प्रकाशस्तंभ हैं।

जागृत और प्रशस्त विवेक के धनी आचार्यश्री कालूगणी
'होनहार बिरवान के होत चीकने पात'- यह लोकोक्ति मात्र कथ्यात्मक ही नहीं अपितु तथ्यात्मक भी है। कथ्य में केवल शब्दों की परिधान-सज्जा होती है जबकि तथ्य में आत्मा का अस्तित्व होता है। आत्मा का अस्तित्व सत्य से भिन्न नहीं होता, अतः यह एक तथ्यपूर्ण निष्कर्ष है कि तथ्य सत्य से अनुस्यूत होता है। आचार्यश्री कालूगणी के जीवन में उक्त लोकोक्ति तथ्य रूप में चरितार्थ थी। इसलिए उनका जीवन प्रारंभ से ही सत्य से अन्वित था।
जहां सत्य होता है वहां जागृति होती है और जहां जागृति होती है वहां विवेक और परिपक्वता होती है। सत्य, जागृति, विवेक और परिपक्वता अवस्था से सर्वदा सर्वत्र संबंधित नहीं होते। बचपन में भी कोई व्यक्ति जागृत, विवेकी और परिपक्व बन सकता है तथा अवस्था- प्राप्ति के बाद भी किसी का बचपन नहीं छूटता। अतः अवस्था और विवेक, अवस्था और जागृति तथा अवस्था और परिपक्वता का कोई अविनाभावी संबंध नहीं है। इस धरातल पर जितने भी महापुरुष अवतरित हुए हैं उनकी महत्ता के लक्षण प्रायः बचपन में ही प्रकट होने लगे थे। यही कारण था कि उक्त लोकोक्ति को तथ्य के रूप में स्वीकार किया गया।
कालूगणी की गणना विश्व के उन महापुरुषों में होती है जिनका विवेक बचपन से ही जागृत था और जो जीवन के पूर्वभाग से ही परिपक्व थे। वे हर छोटी बात को भी विवेक की तुला पर तोलते थे। उनका अंकन और चिंतन गहरा था। उनमें दूरदर्शिता थी। साधारण परिवेश में भी उनका असाधारण व्यक्तित्व अनायास मुखर हो उठता था। दीक्षा से पूर्व जब बालक कालू वैरागी बने तो तत्कालीन परम्परा के अनुसार उनके अनेक जुलूस निकाले गये। उन्हें वस्त्राभूषणों से सज्जित किया जाता। उस समय कई व्यक्तियों ने उनको अपने आभूषण पहनाने का प्रयत्न किया। तब बालक कालू ने यह कहकर उन आभूषणों को पहनने से इनकार कर दिया कि यदि मैं आपका एक भी आभूषण लूंगा तो मेरे अपने आभूषण गौण हो जाएंगे। दूसरे के आभूषण पहनने से व्यक्ति की शोभा नहीं होती। हर व्यक्ति को अपने घर की स्थिति के अनुसार ही वर्तन करना चाहिए। उनके इस विवेकपूर्ण उत्तर ने सब लोगों को विस्मित कर दिया।