संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

भगवान् महावीर ने शिक्षा के योग्य व्यक्ति के लिए कुछ विशेष बातों की ओर संकेत किया है। वे हैं- 'नम्रता, सहिष्णुता, दमितेन्द्रियता, अनाग्रह-भाव, सत्यरतता, क्रोधोपशांति, क्षमा, सद्भाव और वाक्-संयम ।
३७. पूर्व कुग्राहिताः केचिद्, बालाः पण्डितमानिनः। 
        नेच्छन्ति कारणं श्रोतुं, द्वीपजाता यथा नराः॥
जो पूर्वाग्रह रखते हैं और जो अज्ञानी होने पर भी अपने को पंडित मानते हैं, वे द्वीपजात अर्थात् अशिष्ट पुरुषों की भांति बोधि के कारण को सुनना नहीं चाहते।
विकास के क्षेत्र में पूर्व-मान्यता या पूर्वाग्रह का स्थान नहीं है। पूर्वाग्रही व्यक्ति के लिए सत्य-स्वीकृति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। उसे वही सत्य लगता है जो अपनी मान्यता पर खरा उतरता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किसी ने कहा है-ये कुआं मेरे पिता का बनाया हुआ है। मैं इसी का पानी पीऊंगा। भले इसमें पानी खारा ही है। वे सम्यग् ज्ञान का उपदेश सुनना नहीं चाहते। अगर सुन भी लेते हैं तो उनके दिमाग में उसे प्रवेश नहीं मिल सकता। क्योंकि उनका दिमाग पहले से भरा रहता है। जब हम अपने दिमाग को रिक्त कर लेते हैं तब उसमें किसी अन्य शिक्षा का प्रवेश हो सकता है। भगवान् महावीर ने मेघ से कहा-मेघ ! पंडित-मन्यता और पूर्वाग्रह-इन दोनों से मुक्त होने पर ही सत्य का मार्ग अनावृत हो सकता है।
एक बार दो चींटियां आपस में मिलीं। एक नमक के पहाड़ पर रहती थी और दूसरी चीनी के पहाड़ पर । चीनी के पहाड़ पर रहने वाली चींटी ने दूसरी चींटी को आमंत्रित किया। नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी वहां गई और एक दाना चीनी का मुंह में लिया। उसने थूकते हुए कहा-'अरे, यह भी खारा है।' वहां की निवासिनी चींटी ने कहा- 'बहन ! चीनी मीठी होती है। वह कभी खारी नहीं होती।' आगन्तुक चींटी ने कहा- 'मेरा मुंह तो खारा हो गया है। मैं कैसे मानूं कि चीनी मीठी होती है!' यह सुनकर वह असमंजस में पड़ गई। उसने आगंतुक चींटी का मुंह देखा। उसमें नमक की एक डली थी। उसने कहा-'बहन ! नमक को छोड़े बिना मुंह मीठा कैसे होगा?' यह संस्कारों के आग्रह की कहानी है। आग्रह को छोड़े बिना सत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता।
३८. उपदेशमिदं श्रुत्वा, प्रसन्नात्मा महामना। 
        मेघः प्रसन्नया वाचा, तुष्टुवे प. पेष्ठिनम्॥
महामना मेघ यह उपदेश सुन बहुत प्रसन्न हुआ और प्रांजल वाणी से भगवान् महावीर की स्तुति करने लगा।
मेघ की जागृत आत्मा आराध्य के प्रति कृतज्ञ हो गई। मन का मैल धुल गया, वाणी विशुद्ध हो गई और शरीर शांत हो गया। मन अनंत श्रद्धा से भगवान् की आत्मा में विलीन हो गया। वाणी में अनंत श्रद्धा है और शरीर श्रद्धा से नत है। आत्मा की श्रद्धा शब्दों का चोला नहीं पहन सकती और पहनाया भी नहीं जा सकता। किन्तु श्रद्धालु के पास उसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है। वह नहीं चाहता कि अनन्य श्रद्धा शब्दों के माध्यम से बाहर आए, लेकिन वाणी मुखरित हो जाती है। श्रद्धा के वे अल्प शब्द अनंत श्रद्धालुओं के लिए प्राण, जीवन और संजीवनी बन जाते हैं।