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पुरुषार्थ के पर्याय – आचार्य श्री तुलसी
भारतीय परंपरा में अनेक ऋषि, महर्षि, संत, महंत और आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान, तपस्या और भक्ति के द्वारा जनमानस को प्रभावित और प्रकाशित किया है। जीवन के अनेक क्षेत्रों में पदन्यास करते हुए विकास के नित्य नवीन द्वारों को उद्घाटित किया है। जैन, बौद्ध, सिख, सनातन – सभी परंपराओं के संतों ने जनजीवन में अध्यात्म के बीजारोपण कर संस्कारों को पल्लवित और पुष्पित किया है। इसी भूमि को धर्म और अध्यात्म का गौरव सदा से प्राप्त हो रहा है।
इसी भूमि पर जैन परंपरा के इतिहास में अनेक उद्भट आचार्य हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर अपने पराक्रम और पुरुषार्थ के द्वारा जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया है तथा मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना में महनीय भूमिका निभाई है। इसी श्रृंखला में बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्ध में तेरापंथ धर्मसंघ के नवम पट्टधर हुए हैं आचार्य श्री तुलसी।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी आचार्य श्री तुलसी एक संप्रदाय के आचार्य अवश्य थे, किन्तु उनकी कार्यशैली संप्रदायातीत थी। इसीलिए उन्होंने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक – सभी क्षेत्रों में अपने वर्चस्वी जीवन व क्रांतिकारी विचारों से जागृति के नवीन प्रयोग किए। धार्मिक क्षेत्र में अपने संघीय गतिविधियों में परिवर्तन की लहर पैदा की।
आचार्य पद पर आसीन होने के बाद शिक्षा, दीक्षा व विहार यात्रा में परिवर्तन किए। उस समय का साध्वी समाज शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ था। संस्कृत अथवा अंग्रेजी की बात तो बहुत दूर, हिंदी का भी पूरा ज्ञान नहीं था। साध्वियों द्वारा हिंदी में व्याख्यान देना भी बहुत मुश्किल था। आचार्य तुलसी के पुरुषार्थ से वे ही साध्वियां हिंदी, संस्कृत व अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलने में सक्षम होती गईं। उन्होंने साध्वियों की दीक्षा से पूर्व पारमार्थिक शिक्षण संस्थान का सूत्रपात किया, जिससे उस संस्था में रहकर वे अच्छे ढंग से अध्ययन कर सकें।
आज तेरापंथ धर्मसंघ का समणी वर्ग व साध्वी समाज सुदूर देशों की यात्राएं व श्रावक समाज की सार-संभाल तो बखूबी करते ही हैं, साथ ही अन्य सामाजिक व राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रतिनिधियों को प्रतिबोध देकर उनका सही अर्थ में मार्गदर्शन भी करते हैं। न केवल साध्वी समाज, अपितु अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल से संबंध होकर समाज की महिलाएं भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं। अनेक स्थानों पर इनके शाखा-मंडलों द्वारा नए-नए कार्यों और गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। घूंघट के पर्दे व चारदीवारी में कैद महिला समाज को अपनी अस्मिता की पहचान करवाकर शक्ति का अहसास कराने में आचार्य श्री तुलसी ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सामाजिक क्षेत्र में पलने वाली अनेक कुरीतियों को दूर करने के लिए ‘नया मोड़’ का सर्जन किया। यद्यपि रूढ़िमुक्त समाज बनाने के लिए उन्होंने अनेक कड़वे घूंट भी पिए, क्योंकि जिस समाज में रूढ़ियां अथवा अंधविश्वास पलते हैं, वह समाज पिछड़कर सौ वर्ष पीछे चला जाता है। इसके लिए विरोधों के अनेक बवंडर झेलकर भी वे सदा आगे बढ़ते रहे हैं।
भगवान महावीर का परम सूत्र 'एगा माणुसी जाई' – मनुष्य जाति एक है। जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, वर्णवाद के आधार पर मानव-मानव के बीच खाई उन्हें कतई पसंद नहीं थी। आचार्य तुलसी ने इसे प्रयोगात्मक तौर पर सामाजिक स्तर पर नीची कहलाने वाली कौम को अपने प्रवचन स्थल पर अग्रिम स्थान देकर साकार किया। यद्यपि इसका समाज ने व्यापक स्तर पर विरोध मुखरित किया, किन्तु उन्होंने कभी विरोध का जवाब विरोध से नहीं दिया। उन्होंने विरोध को भी विनोद के लहजे में उत्तर दिया।
उनकी अपनी मान्यता थी – 'जो हमारा करे विरोध, हम उसे मानें विनोद।'
एक बार कुछ मतावलंबियों ने उनके विरोध स्वरूप सड़कों पर पोस्टर चिपका दिए। आचार्य तुलसी ने कहा – 'ये तो हमारे हितैषी हैं, क्योंकि इन पोस्टरों के चिपकाने से हमारे पैर काले नहीं होंगे।' इस तरह विरोध को टालकर शांति का परिचय दिया। विरोध को शांति से सहन करने वाला ही आगे बढ़ता है, विकास करता है।
अणुव्रत आंदोलन के सूत्रपात से पूर्व तेरापंथ धर्मसंघ एक संप्रदाय के घेरे में बंधा हुआ था, किन्तु देश की आजादी के साथ आचार्य तुलसी के मस्तिष्क में एक क्रांति का जन्म हुआ और वह क्रांति थी नैतिक क्रांति। देश में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना व चारित्रिक उन्नयन के लिए अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया।
यद्यपि देश में अनेक प्रकार के आंदोलन समय-समय पर होते रहे, लेकिन नैतिक आंदोलन के रूप में पहली बार सामने आया अणुव्रत आंदोलन। वर्ण, जाति, संप्रदाय से मुक्त यह आंदोलन ‘सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय’ की भावना से ओत-प्रोत है। इसके लिए स्वयं आचार्य तुलसी अपनी पदयात्रा में सर्वप्रथम दिल्ली पधारे और वहां देश के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद से संपर्क हुआ।
राजेंद्र बाबू के संपर्क व सहयोग से प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मुलाकात हुई। चरित्र-निष्ठ, नैतिक-निष्ठ परिकल्पना की वार्ता से पंडित जवाहरलाल नेहरू भी बहुत प्रभावित हुए। यद्यपि पंडित जी के मन में धर्म व धर्मगुरुओं के प्रति विशेष आकर्षण कभी नहीं रहा, किन्तु इस नैतिकता व चरित्र की बात का उन पर अच्छा प्रभाव पड़ा तथा उस आंदोलन के प्रचार-प्रसार में अपनी रुचि व समर्थन प्रकट किया।
आचार्य तुलसी के शब्दों में अणुव्रत है –
'अणुव्रत की आचार संहिता प्रवर कल्पना का परिणाम, स्फुरित हुआ धार्मिक चिंतन में, नैतिकता क्यों बनी विराम।
नैतिकता से शून्य धर्म का कैसे कितना होगा मूल्य, मानव कैसे होगा मानव, मानवता सर्वोच्च अमूल्य।'
इस अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से स्वयं आचार्य तुलसी और उनके सैकड़ों जीवनदायी कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रव्यापी स्तर पर इसका प्रचार-प्रसार किया। झुग्गी-झोंपड़ी हो अथवा राष्ट्रपति भवन – व्यक्ति-व्यक्ति में नैतिक मूल्यों व चरित्रनिष्ठा की भावना जागी। क्योंकि व्यक्ति से समाज और राष्ट्र सुधार संभव है। व्यक्ति एक इकाई है, उसके सुधार की परिकल्पना से राष्ट्र का सुधार संभव है।
अणुव्रत रूपी पक्षी के दो पंख स्वरूप प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान का अवदान प्राप्त हुआ, जिससे व्यक्ति तनावमुक्त व स्वस्थ जीवन जी सके। जीवन विज्ञान वर्तमान बालपीढ़ी को सुसंस्कारी व स्वस्थता प्रदान करता है। शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, भावनात्मक स्वास्थ्य ही स्वस्थ जीवन के लक्षण हैं। जब तक सर्वांगीण विकास नहीं होता, तब तक विकास की अवधारणा अधूरी रहती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को सर्वांगीण विकास का लक्ष्य बनाना चाहिए।
आचार्य तुलसी समयज्ञ, आगमज्ञ, तत्वज्ञ व सर्वकला-विशेषज्ञ पुरुष थे। समाज और राष्ट्र की दिशा और दशा के बदलाव में उन्होंने अपना पराक्रम और पुरुषार्थ नियोजित किया। समय की नब्ज पर सदैव अपना हाथ बनाए रखा। बाल, युवा, महिला वर्ग के साथ मजदूर, व्यापारी, राज्यकर्मचारी, राजनेता – अर्थात समग्र मानव जाति के हितार्थ अपना संदेश दिया। मानव जाति के हितार्थ व कृतार्थ करने के उद्देश्य से उन्होंने पुरुषार्थ किया एवं उनमें सफलताएं अर्जित कीं।
ऐसे महापुरुष शताब्दी अथवा सहस्राब्दी में कभी-कभी ही हुआ करते हैं, जिनके अवदानों से समग्र मानव जाति कृतकृत्य हो जाती है और उन्हें स्मरण कर आत्मानंद की अनुभूति करती है। उनके इस शताब्दी वर्ष पर हम धन्यता का अनुभव करें तथा उनके संयम जीवन की ज्ञानरश्मियों
से स्वयं को निष्णात करें – यही उनके प्रति सच्ची भावांजलि।
'जिन्हें जरूरत हो वह करें खुदाओं की तलाश,
हम तो तुलसी को दुनिया का खुदा कहते हैं।'