संबोधि

स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

आज्ञावाद

भगवान् प्राह

(25) आत्मशुद्ध्यै भवेदाद्यो, देशित: स मया ध्रुवम्।
समाजस्य प्रवृत्त्यर्थं, द्वितीयो वर्त्यते जनै:॥

आत्मिकधर्म आत्मशुद्धि के लिए होता है इसलिए मैंने उसका उपदेश किया है। लौकिकधर्म समाज की प्रवृत्ति के लिए होता है। उसका प्रवर्तन सामाजिक जनों के द्वारा किया जाता है।

(26) आत्मधर्मो मुमुक्षूणां, गृहिणा×च समो मत:।
पालनापेक्षया भेदो, भेदो नास्ति स्वरूपत:॥

आत्म-धर्म साधु और गृहस्थदोनों के लिए समान है। धर्म के जो विभाग हैं, वे पालन करने की अपेक्षा से किए गए हैं। स्वरूप की द‍ृष्टि से वह एक है, उसका कोई विभाग नहीं होता।

(27) पाल्यते साधुभि: पूर्ण:, श्रावकैश्‍च यथाक्षमम्।
यत्र धर्मो हि साधूनां, तत्रैव गृहमेधिनाम्॥

साधु आत्म-धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और श्रावक उसका पालन यथाशक्‍ति करते हैं। संयममय आचरण साधु के लिए भी धर्म है, गृहस्थ के लिए भी धर्म है। असंयममय आचरण साधु के लिए भी धर्म नहीं है, गृहस्थ के लिए भी धर्म नहीं है।
अहिंसा गृहस्थ के लिए धर्म हो और साधु के लिए अधर्म अथवा साधु के लिए धर्म हो और गृहस्थ के लिए अधर्म, ऐसा कभी नहीं होता। तात्पर्य यही है कि गृहस्थ का धर्म साधु के धर्म से भिन्‍न नहीं किंतु उसी का एक अंश है।
मुनि और गृहस्थ दोनों का धर्म एक है। अंतर इतना ही है कि मुनि धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और गृहस्थ उसका आंशिक रूप में। धर्म के विभाग व्यक्‍ति-व्यक्‍ति की पालन करने की शक्‍ति के आधार पर किए गए हैं। उनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्राभेद होता है। मुनि अहिंसा का पूर्ण व्रत स्वीकार करते हैं और गृहस्थ अपने सामर्थ्य के अनुसार उसका पालन करते हैं। यही धर्म के विभिन्‍न रूपों का आधार है।

(28) तीर्थंकरा अभूवन् ये, विद्यन्ते ये च सम्प्रति।
भविष्यन्ति च ते सर्वे, भाषन्ते धर्ममीद‍ृशम्॥

जो तीर्थंकर अतीत में हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसे ही धर्म का निरूपण करते हैं।

(29) सर्वे जीवा न हन्तव्या: कार्या पीडापि नाल्पिका।
उपद्रवों न कर्तव्यो, नाऽऽज्ञाप्या बलपूर्वकम्॥
(30) न वा परिगृहीतव्या, दासकर्मनियुक्‍तये।
एष धर्मो ध्रुवो नित्य:, शाश्‍वतो जिनदेशित:॥ (युग्मम्)

कोई भी जीव हंतव्य नहीं है, न उन्हें किंचित् पीड़ित करना चाहिए, न उपद्रव करना चाहिए, न बलपूर्वक उन पर शासन करना चाहिए और न दास बनाने के लिए उन्हें अपने अधीन रखना चाहिएयह अहिंसा-धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्‍वत और वीतराग के द्वारा निरूपित है।

(31) न विरुध्येत केनापि, न बिभियान्‍न भापयेत्।
अधिकारान्‍न मुष्णीयाद्, न कुर्याद् श्रमशोषणम्॥

किसी के साथ विरोध न करे, न किसी से डरे और न किसी को डराए, न किसी के अधिकरों का अपहरण करे और न किसी के श्रम का शोषण करे। (क्रमश:)