उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य वज्रस्वामी
(क्रमश:) माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर दूसरे दिन प्रात:काल होते ही आर्यरक्षित ने इक्षुवाटिका की ओर प्रस्थान कर दिया। नगर के बहिर्भूभाग में उसे पिता का मित्र वृद्ध ब्राह्मण मिला। उसके हाथ में नौ इक्षुदंड पूर्ण थे। दसवाँ आधा था। इक्षु का यह उपहार लेकर वह आर्यरक्षित से मिलने ही आ रहा था। संयोगवश मित्रपुत्र को मार्ग के मध्य में ही पाकर वह प्रसन्न हुआ। आर्यरक्षित ने उनका अभिवादन किया। पिता-मित्र वृद्ध ब्राह्मण ने भी प्रीति-वश उसे गाढ़ आलिगंन में बाँध लिया। आर्यरक्षित ने कहा‘मैं अध्ययन करने के लिए जा रहा हूँ। आप मेरे बंधुजनों की प्रसन्नता के लिए उनसे घर पर मिलेें।’ आर्यरक्षित ने अनुमान लगायाइक्षुवाटिका की ओर जाते हुए मुझे सार्ध नौ इक्षुयष्टिका का उपहार मिला। इस आधार पर मुझे दृष्टिवाद ग्रंथ के सार्ध नौ परिच्छेदों की प्राप्ति होगी, इससे अधिक नहीं। उल्लास के साथ रक्षित इक्षुवाटिका में पहुँचा। ढड्ढ़र श्रावक को वंदन करते देख उन्होंने उसी भाँति आर्य तोषलिपुत्र को वंदन किया। श्रावकोचित क्रियाकलाप से अज्ञान नवागंतुक व्यक्ति को विधियुक्त वंदन करते देख आर्य तोषलिपुत्र ने पूछा‘वत्स! तुमने यह विधि कहाँ से सीखी?’ रक्षित ने ढड्ढ़र श्रावक की ओर संकेत किया और अपने आने का प्रयोजन भी बताया। आर्य तोषलिपुत्र ने ज्ञानोपयोग से जाना‘श्रीमद् वज्रस्वामी के बाद यह बालक प्रभावी होगा।’ नवागंतुक विद्वान् रक्षित को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा‘दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए मुनि बनना आवश्यक है।’ रक्षित में ज्ञानपिपासा प्रबल थी। वह श्रमण-दीक्षा स्वीकार करने के लिए उद्यत हुआ। आर्य तोषलिपुत्र ने संयम-मार्ग पर बढ़ने के लिए उत्सुक रक्षित को वी0नि0 544 (वि0 74, ई0 17) में भागवती दीक्षा प्रदान की। दीक्षा लेने के बाद मुनि रक्षित ने निवेदन कियागुरुदेव! मैं राजपुरोहित सोमदेव का पुत्र हूँ। राजपुरोहित-पुत्र होने के कारण दशपुर-नरेश उदायन का और वहाँ के नागरिक बंधुओं का मेरे प्रति विशेष अनुराग है। मेरे प्राय: पारिवारिक जन जैन संस्कारों से अनभिज्ञ हैं। उनका मोहानुबंध भी अत्यंत सघन है। मेरे मुनि बनने की बात ज्ञात होने पर राजा के द्वारा अथवा पारिवारिकजनों द्वारा बलपूर्वक मुझे घर ले जाने का उपक्रम किया जा सकता है। प्रभो! मेरे कारण किसी प्रकार से जैनशासन की अवमानना न हो अत: आप शीघ्र ही किसी दूसरे क्षेत्र में प्रस्थान कर दें। यही मेरे लिए व आपके लिए श्रेयस्कर है।
नवदीक्षित मुनि के निवेदन पर आर्य तोषलिपुत्र ने इक्षुवाटिका से अन्यत्र विहार कर दिया। मुनि रक्षित में आगमों के अध्ययन की तीव्र उत्कंठा थी। आर्य तोषलिपुत्र ने नवदीक्षित मुनि रक्षित को एकादश आगमों का प्रशिक्षण दिया एवं दृष्टिवाद आगम का आंशिक अध्ययन करवाया। अग्रिम अध्ययन के लिए उन्होंने मुनि रक्षित को वज्रस्वामी के पास भेजा।
गुरु-आज्ञा शिरोधार्य कर मुनि रक्षित वहाँ से चले। मार्गान्तरवर्ती अवन्तीनगर में आचार्य भद्रगुप्त से उनका मिलन हुआ। वार्तालाप के प्रसंग में मुनि रक्षित ने कहामैं अवशिष्ट दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए आर्य वज्रस्वामी के पास जा रहा हूँ। आचार्य भद्रगुप्त वज्रस्वामी के विद्यागुरु थे। उन्होंने मुनि रक्षित को स्नेह प्रदान करते हुए कहा‘रक्षित! पूर्वों को पढ़ने की तुम्हारी अभिलाषा प्रशंसनीय है। तुम्हारा यहाँ आना उचित समय पर हुआ है। मेरी मृत्यु निकट है। अनशन की स्थिति में तुम मेरे पास रहकर सहायक बनो। कुलीन व्यक्तियों का यही कर्तव्य होता है।’ आचार्य भद्रगुप्त का निर्देश पाकर मुनि रक्षित ने प्रसन्न मन से स्वयं को सेवा में समर्पित कर दिया। परम समाधि में लीन और अनशन में स्थित आर्य भद्रगुप्त ने एक दिन प्रसन्न मुद्रा में कहा‘मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी परिचर्या से मुझे क्षुधा एवं तृष्णा का परीषह भी अनुभूत नहीं हुआ। मैं तुम्हें एक मार्गदर्शन दे रहा हूँतुम वज्रस्वामी के पास पढ़ने के लिए जाओ, पर भोजन एवं शयन की व्यवस्था अपनी पृथक् रखना। क्योंकि आर्य वज्र की जन्म-कुंडली का योग है कि जो भी नवागंतुक व्यक्ति उनकी मंडली में भोजन करेगा और आर्य वज्रस्वामी के पास रात्रि-शयन करेगा, वह उनके साथ पंचत्व को प्राप्त होगा। तुम शासन के प्रभावक आचार्य बनोगे, संघोद्धारक बनोगे अत: यह निर्देश मैं तुम्हें दे रहा हूँ।’
(क्रमश:)