एकाह्निक तुलसी-शतकम्

एकाह्निक तुलसी-शतकम्

(क्रमश:)
रचना संसार
(66) ‘आत्मा के आसपासे’ ति, कृतिरध्यात्मपूरिता।
अवश्यपठनीयाप्यस्त्यात्मस्मृति: स्वकस्मृति:॥
आपकी कृति ‘आत्मा के आसपास’ एक अध्यात्मरस से पूरित, अवश्य पठनीय रचना है, क्योंकि अपनी मूल अस्तित्व की स्मृति ही आत्मा की स्मृति है।

(67) ते कोऽपि मित्रदेव: किं, तस्य विना प्रनीयते।
कालूयशोविलासस्य, रचना नन्वसंभवा॥
गुरुदेव! मुझे लगता है कि जरूर आपका कोई मित्रदेव है अन्यथा कालूयशोविलास जैसी रचना असंभव प्रतीत होती है।

(68) कोविदेनोद्यते सुष्ठु, रचनामवलोक्य यत्।
भवति शतवर्षेषु, रचनैषा कदा कदा॥
विद्वानों ने इस रचना का अवलोकन कर कहा कि ऐसी कृति तो शताब्दियों में कभी-कभी बनती है।

(69) कालुयशोविलासस्य, ह्यनुभवन्ति पाठका:।
कालुजीवनयात्राया:, सन्ति प्रत्यक्षसाक्षिन:॥
कालूयशोविलास के पाठक ऐसा अनुभव करते हैं कि वे मानो कालूगणी के जीवनयात्रा के प्रत्यक्ष साक्षी हैं।

(70) भरताधारिते काव्ये, भरतमुक्‍तिनामके।
अध्यात्मस्य ह्यनासक्त्या, निदर्शनं कृतं त्वया॥
आपने चक्रवर्ती भरत आधारित काव्य में, जिसका नाम है भरत-मुक्‍ति, उसमें अध्यात्म और अनासक्‍ति का सुंदर निदर्शन किया है।

(71) यथाऽऽहारेषु क्षैरेयी, चास्ति संपूर्णखादनम्।
तथा दर्शनशास्त्रेषु, जैनसिद्धान्तदीपिका॥
जैसे आहारों में खीर संपूर्ण भोजन है, वैसे ही दर्शन-शास्त्रों में स्थान है जैन सिद्धान्त दीपिका का।

(72) कृतं सरलपद्धत्या, श्रीभिक्षुन्यायकर्णिका।
जैनन्यायपिपासुभ्यस्तर्कशास्त्रनिरूपणम्॥
सरल-सुंदर पद्धति से रचित श्रीभिक्षुन्यायकर्णिका जैन-न्याय के पिपासुओं के लिए तर्क-शास्त्र का विवेचन है।

(73) मानसस्यातिचा×चल्यं, महासङ्कटकारणम्।
तन्‍निवारणहेतुश्‍च, कृतं मनोऽनुशासनम्॥
मन का अति चा×चल्य महा संकट का कारण हो सकता है। उसके निवारण हेतु है आपकी रचना मनोऽनुशासनम्।

(74) त्वया मन्त्रिमुनीशस्वकानन्यसहयोगिन:।
श्रीमगनचरित्रेण, कृतं सजीवचित्रणम्॥
आपने मगन-चरित्र द्वारा अपने अनन्य सहयोगी मंत्री मुनिश्री मगनलालजी स्वामी का सजीव चित्रण किया।

(75) पूज्यडालं कदापीति, गुरो! भवान् न द‍ृष्टवान्।
श्रीडालिमचरित्रस्य, रचनाभकरोद् कथम्॥
गुरुदेव! आपने तो पूज्य डालगणी को कभी देखा ही नहीं, फिर डालिम-चारित्र की रचना कैसे?

(76) स्वपदेन समं सर्वा, इत्थमेव प्रतीयते।
अनुभूतीर्गुरु: स्थानन्तरितमकरोत्त्वयि॥
ऐसा लगता है गुरु कालुगणी ने अपने पद के साथ सारी अनुभूतियों को भी आपमें स्थानांतरित कर दिया।

(77) भवता रचितं काव्यं, श्रीमाणकचरित्रकम्।
शोणोपलाधिकं मूल्यसम्पन्‍नं सर्वद‍ृष्टिभि:॥
आपके द्वारा रचित काव्य माणकचरित्र सभी द‍ृष्टियों से माणक से भी अधिक मूल्यसंपन्‍न है।
(शेष अगले अंक में)