प्रतिभा, पुरुषार्थ और सुयोग्य शिक्षक से विद्यार्थी का समुचित विकास होता है : आचार्यश्री महाश्रमण
कोटा, 3 दिसंबर, 2021
ज्योतिचरण आचार्यश्री महाश्रमण जी ने कोटा प्रवास के द्वितीय दिन मंगल देशना देते हुए फरमाया
कि स्वाध्याय एक गरिमापूर्ण अर्थ वाला शब्द है। शब्द और अर्थ इन दोनों का गहरा संबंध होता है। शब्द अपने आपमें जड़ है, परंतु जड़ शब्द में एक प्रकार की अर्थात्मा होती है। वह कैसी है, उसका अपना महत्त्व होता है।
शब्द का अपना-अपना अर्थ होता है। विकास शब्द उपयोगी है, तो मूर्ख शब्द भी उपयोगी हो सकता है। स्वाध्याय शब्द का अपना अर्थ हैस्वा-ध्याय। मैं स्वाध्याय शब्द के अनेक रूपों में अर्थ कर सकता हूँ। स्वा ़ अध्याय इति स्वाध्याय। अपना अध्ययन करना स्वाध्याय होता है। मेरे में दूसरे महापुरुष जैसे कितने गुण हैं, इसको जानना स्वाध्याय है। कोई बात की प्रतिक्रिया न करना स्वाध्याय है, यह एक प्रसंग से समझाया।
स्वाध्याय का दूसरा अर्थ करता हूँसु-आ-अध्याय। सु यानी अच्छा। आ यानी चारों ओर से परिव्रत: और अध्याय यानी अध्याय करना। कोई अच्छी बात पढ़ें उस पर मनन करें। जैन वाङ्मय में अध्याय को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्वाध्याय से ज्ञान, एक प्रकार का प्रकाश मिलता है। इसलिए हमें जीवन में जितनी अनुकूलता हो, स्वाध्याय का प्रयास करना चाहिए। कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन करना भी स्वाध्याय है। जैन दर्शन में चतुर्दश पूर्वी जो हुए हैं, छ: श्रुत केवली भी बताए गए हैं। उनके पास कितना ज्ञान होता है और कैसे वो थोड़ी सी देर में अपने ज्ञान का पुनरावर्तन कर लेते होंगे। आज भी बहुत ज्ञान किया जा सकता है। मति श्रुत ज्ञान का क्षयोपशम होता है, तो व्यक्ति वैदुष्य संपन्न बन सकता है। स्वाध्याय करने में कई बाधाएँ भी होती हैं। बड़ी बाधा हैआलस्य। आदमी प्रमाद न करे। स्वाध्याय में प्रमाद मत करो। उद्यम या श्रम के समान बड़ा मित्र कोई नहीं है, जिसका आश्रय लेने से दु:खी नहीं बनता है। साधु-साध्वियों को भी अपेक्षित स्वाध्याय करना चाहिए। संरक्षक भी ध्यान रखें।
हमारे चतुर्थाचार्य पूज्य जीतगणी को मुनि हेमराज जी स्वामी का योग मिला था। पर क्षयोपशम तो खुद का ही होना चाहिए। ‘गुरु बेचारा क्या करे, जब चेले में खोट’। प्रतिभा स्वयं की है, गुरु ज्ञान दे सकता है। विद्यार्थी में प्रतिभा भी हो, पुरुषार्थ भी और शिक्षक भी योग्य मिल जाए इस त्रिआयामी व्यवस्था से वह ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। विद्यार्थी अनावश्यक बातें या हँसी-मजाक में न रहे, इन बाधाओं से उपरत रहने का प्रयास हो। ज्ञान के साथ आचार भी अच्छा हो। कोरा ज्ञान आधा है, साथ में आचरण भी जुड़ जाए तो परिपूर्णता उस संदर्भ में आ सकती है। आचरणों में हमारी भावशुद्धि हो। उपाध्याय विनय विजय जी ने कहा है कि एक विद्वान है, उसमें भावात्मक अच्छा विकास नहीं है, तो विद्वान लोग के दिमाग में भी शांति नहीं रहती। सुख भी होता है। ज्ञान के साथ भावात्मक विकास का बहुत महत्त्व है। प्.फ के साथ म्.फ का भी विकास हो। हमारे जीवन में ज्ञान और स्वाध्याय का बड़ा महत्त्व है। हम ज्ञान का विकास करें, साथ में भावात्मक-आचरणात्मक विकास का क्रम अच्छा रहे तो हम इस जीवन में नहीं, आगे के जीवन में भी अच्छी स्थिति का निर्माण कर सकते हैं। आज चतुर्दशी है। चतुर्दशी को हमारे यहाँ धार्मिक स्थिति के रूप में सम्मान है। आज हाजरी का वाचन होता है। मर्यादावली का पुनरार्वतन होता है। पूज्यप्रवर ने हाजरी का वाचन किया। मुनि कुमारश्रमण जी ने लेख पत्र का वाचन किया। पूज्यप्रवर ने उन्हें 51 कल्याणक बख्शीश करवाए। साध्वीवर्याजी ने कहा कि हमारा जीवन हमारे हाथ में है, हम जीवन को जैसा चाहते हैं, जी सकते हैं। जो व्यक्ति प्रतिक्रिया विरक्ति का जीवन जीता है, वो स्वतंत्र जीता है। जो व्यक्ति प्रतिक्रिया युक्त जीवन जीता है, उसका जीवन परतंत्र हो जाता है। हम नकारात्मक सोच से किसी के हाथ की कठपुतली न बनें। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि गुरु की सुश्रुषा करने से सुगति प्राप्त होती है, ज्ञान मिलता है।