साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(39)

देख उदय अभिताभ अरुण का विकसित सब मन के जलजात।
पाखी करते मधुरिम कलरव उजला-उजला आज प्रभात॥

महक रही मदमस्त हवाएँ खिला हुआ मानो मधुमास
थिरक रही संगीत-लहरियाँ फैली चारों ओर सुवास
दिग्दिगंत में गूँज रही है कथा कौमुदी-सी अवदात॥

खुशियाँ उतर रही नयनों में घर-घर में छाया उल्लास
हर पल रस भीगा-सा लगता कण-कण में अभिनव उच्छ्वास
तुम आए जब इस धरती पर शांत हो गए झंझावात॥

शब्दों की सीमा है निश्‍चित विस्तृत भावों का आकाश
सतरंगी सपने समुदित हों हुए निछावर तुम पर खास
नए सृजन के संदर्भों में शिल्प तुम्हारा है विख्यात॥

संयम ही जीवन है तुमने दिया विश्‍व को शाश्‍वत घोष
हर उलझन का समाधान कर देता है सात्त्विक परितोष
मानस का संताप मिटाने करते करुणा की बरसात॥

स्वप्न और संकल्प तुम्हारा सुंदर हो जग की तस्वीर
जीवन-मूल्यों को अपनाकर बदले नर अपनी तकदीर
दीप जले पौरुष का ऐसा नूतन युग की हो शुरुआत॥

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(40)

है वही सार्थक सुबह जो सत्य का सूरज उगाए
दीप्ति संयम की बढ़ा जो जिंदगी रोशन बनाए॥

मन-समंदर में उफनती चपल लहरों को दुलारे
प्रबल झंझावात में भयभीत होकर जो न हारे
प्रखर पौरुष से शिशिर में भी दिखा दे जो बहारें
उस अमर तारुण्य के होते सभी अद्भुत नजारे
परम पावन आज का दिन उस तरुणिमा को बधाएँ॥

द्वार पर जिसके सदा दस्तक सफलता दे रही है
शांति की ोतस्विनी अनुगामिनी होकर बही है
धूप में भी छाँव शीतल गगनपथ से उतर आती
बिना पूछे ही जिसे सब अनकही मन ने कही है
उखड़ते विश्‍वास में आश्‍वास की आभा जगाएँ॥

जो निराशा से रहा अनजान बन पहचान जग की
प्रगति बनती संगिनी खुद मंजिलों पे उठे पग की
काल के आलेख पर अंकित वही मतिमान होता
जो नहीं परवाह करता एक क्षण भी विषम मग की
चिरयुवा उस युगपुरुष को अर्घ्य पूरा युग चढ़ाए॥

(क्रमश:)