उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य कुंदकुंद

आचार्य कुंदकुंद का दिगंबर परंपरा में गरिमामय स्थान है। अध्यात्म द‍ृष्टियों को विशेष उजागर करने का श्रेय उन्हें प्राप्त है। श्रुतधर आचार्यों की परंपरा में भी उनको प्रमुख माना गया है। आचार्य कुंदकुंद के प्रभावशाली व्यक्‍तित्व के कारण उनकी उत्तरवर्ती परंपरा मूल संघ और कुंदकुंदाचार्य की परंपरा कहलाने में गौरव अनुभव करती है। श्‍वेतांबर परंपरा में जो महत्त्व पूर्वधर आचार्य स्थूलभद्र को दिया गया, वही महत्त्व दिगंबर परंपरा में आचार्य कुंदकुंद को मिला है। जैन धर्म का सुप्रसिद्ध एक ही श्‍लोक श्‍वेतांबर परंपरा में आचार्य स्थूलभद्र के नाम के साथ और दिगंबर परंपरा में आचार्य कुंदकुंद के नाम के साथ स्मरण किया जाता है। वह श्‍लोक इस प्रकार है
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमप्रभु:।
मंगलं कुंदकुंदाद्या (स्थलूभद्राद्या) जैन धर्मोस्तु मंगलम्॥
तीर्थंकर महावीर और गणधर गौतम के बाद दिगंबर परंपरा में आचार्य कुंदकुंद का उल्लेख उनकी महनीय महत्ता का परिचायक है।
आचार्य कुंदकुंद की गुरु-परंपरा के संबंध में सर्वसम्मत एक विचार प्राप्त नहीं है। बोध प्राभृत के अनुसार आचार्य कुंदकुंद भद्रबाहु के शिष्य थे। पर भद्रबाहु उनके साक्षात् गुरु नहीं थे। कुंदकुंद-ग्रंथों के टीकाकार आचार्य जयसेन के अभिमत से आचार्य कुंदकुंद कुमारनंदी सिद्धांतदेव के शिष्य थे। शुभचंद्र गुर्वावली में प्राप्त उल्लेखानुसार भद्रबाहु के शिष्य माघनंदी, माघनंदी के शिष्य जिनचंद्र, जिनचंद्र के शिष्य पद्मनंदी का ही दूसरा नाम कुंदकुंद था। नंदी-पट्टाावली में भद्रबाहु द्वितीय, गुप्तिगुप्त, माघनंदी जिनचंद्र के बाद कुंदकुंद का उल्लेख किया है। इन दोनों पट्टावलियों में प्राप्त उल्लेखानुसार आचार्य कुंदकुद के गुरु आचार्य जिनचंद्र थे, दादागुरु माघनंदी थे। आचार्य कुंदकुद ने श्रुतधर भद्रबाहु को अपना गमक गुरु माना है।
आचार्य कुंदकुंद दक्षिण भारत के निवासी एवं वैश्यवंशज थे। उनका जन्म दक्षिण भारत के अंतर्गत कौण्डकुंदपुर में हुआ। कुंदकुंद के पिता का नाम करमंडू और माता का नाम श्रीमती था। कौंण्डकुंदपुर निवासी करमंडू को दीर्घ प्रतीक्षा के बाद एक तपस्वी ॠषि की कृपा से पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी। करमंडू का यह पुत्र जन्म-स्थान के आधार पर कुंदकुंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जन्म-स्थान का नाम कोण्डकुंद है, उच्चारण-मधुरता के कारण कोण्डकुंद ही कुंदकुंद नाम से परिवर्तित हुआ। आचार्य कुंदकुंद उग्रविहारी थे। वे दुर्गम घाटियों और वनों में भी निर्भीक भाव से विहरण करते थे। उनके पास तप का तेज और साधना का बल था। उनका चिंतन अध्यात्मप्रधान था। कुंदकुद के पाँच नाम बताए गए हैं(1) पद्मनंदी, (2) कुंदकुंद, (3) वक्रगीव, (4) एकल (एलाचार्य), (5) गृद्धपिच्छ। कुंदकुंद को तीव्र तपश्‍चरण के परिणामस्वरूप चारणलब्धि प्राप्त थी।
दर्शनसार में प्राप्त उल्लेखानुसार आचार्य कुंदकुंद को महाविदेह में सीमंधर स्वामी से ज्ञानोपलब्धि हुई थी। आचार्य कुंदकुंद वास्तव में अध्यात्म-द‍ृष्टियों के प्रमुख व्याख्याकार थे। उनकी वाणी ने अध्यात्म के नए क्षितिज का उद्घाटन किया और आगमिक तत्त्वों को तर्क-सुसंगत परिधान दिया।
उनकी द‍ृष्टि में भावशून्य क्रियाएँ सर्वथा निष्फल थीं। इन्हीं विचारों की अभिव्यक्‍ति में उनका एक श्‍लोक है
भावरहिओ ण सिज्झई, जइवि तवं चरई कोडिकोडीओ।
जम्मंतराइं बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो॥
जीव दोनों हाथ लटकाकर और वस्त्र त्यागकर करोड़ जन्म तक तपश्‍चर्या करता रहे पर भाव-शून्यावस्था में उसे कभी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। समय-संकेत आचार्य कुंदकुंद के समय के विषय में सभी दिगंबर विद्वान् एकमत नहीं हैं। पं0 नाथूराम प्रेमी ने कुंदकुंद का समय वि0 की तृतीय शताब्दी का उत्तरांश स्वीकार किया है। डॉ0 पाठक ने कुंदकुंद का समय शक संवत् 450, ईस्वी सन् 528 सिद्ध किया है। डॉ0 उपाध्याय ने ई0 सन् प्रथम शताब्दी को मान्य किया है। डॉ0 ज्योति प्रसाद जैन ने भी कुंदकुंद के लिए ई0 सन् प्रथम शताब्दी को प्रमाणित किया है। कुंदकुद के ग्रंथों में केवली-कवलाहार, सचेलकता, स्त्री-मुक्‍ति आदि श्‍वेतांबर मान्यताओं का निरसन है। अत: कुंदकुद का समय दिगंबर और श्‍वेतांबर संघ की स्थापना हो जाने के बाद का अनुमानित होता है।
कुंदकुंद के ग्रंथों में दार्शनिक रूप की जो विवेचना है वह उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगम में नहीं है। सप्तभंगी का रूप भी आचार्य कुंदकुंद के ग्रंथों में अधिक विकसित है। उत्तरवर्ती दार्शनिक धाराओं में भी कुंदकुद के ग्रंथों में उपलब्ध सप्तभंगी का रूप आधार बना है। अत: इन बिंदुओं के आधार पर आचार्य कुंदकुद वाचक उमास्वाति के बाद के विद्वान् हैं। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी ने लिखा है
‘कुंदकुंद की अमर भारती, आत्मा का अतिशय आलोक।
समयसार की समयसारणी, निश्‍चय नय का फलद अशोक॥
(व्यवहार बोध 84)
(क्रमश:)