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स्वाध्याय

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आचार्य महाप्रज्ञ

बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह

(10) आसक्‍तिश्‍च पदार्थेषु, व्यक्‍ताऽव्यक्‍ताऽव्रतात्मिका।
अनुत्साह: स्वात्मरूपे, प्रमाद: कथितो मया॥

पदार्थों में जो व्यक्‍त और अव्यक्‍त आसक्‍ति होती है, वह ‘अविरति’ कहलाती है। अपने आत्म-विकास के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसको मैंने ‘प्रमाद’ कहा है।
अविरति का क्षेत्र जैसे व्यापक है वैसे प्रमाद का भी व्यापक है। आत्म-स्वभाव को अपुष्ट करने वाली क्रिया का समावेश इसी में है। जब तक आत्मा की विस्मृति होती है और पर-पदार्थों की स्मृति होती है तब तक प्रमाद का हाथ बलवान् होता है।
संक्षेप में आत्म-विस्मृति प्रमाद है और आत्म-स्मृति अप्रमाद। जिस व्यक्‍ति को प्रत्येक क्रिया में अपनी आत्मा की स्मृति बनी रहती है, वह अप्रमाद की ओर बढ़ता जाता है।
भगवान् महावीर ने कहा है‘सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अपमत्तस्स णत्थि भयं’जो प्रमत्त है उसे सर्वत्र भय ही भय है और जो अप्रमत्त है, वह भय-मुक्‍त है। भय का मूल कारण प्रमाद है।
अन्यत्र एक स्थान में भगवान् महावीर ने प्रमाद को दु:ख का मूल माना है। एक बार श्रमणों को एकत्रित कर उन्होंने पूछाआर्यो! जीव किससे डरते हैं?
गौतम आदि श्रमण निकट आए, वंदना की, नमस्कार किया, विनम्र भाव से बोलेभगवन्! हम नहीं जानते, इस प्रश्‍न का क्या तात्पर्य है। देवानुप्रिय को कष्ट न हो तो भगवान् कहें। हम भगवान् के पास से यह जानने को उत्सुक हैं।
भगवान् बोलेआर्यो! जीव दु:ख से डरते हैं।
गौतम से पूछाभगवन्, दु:ख का कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है?
भगवानगौतम! दु:ख का कर्ता है जीव और उसका कारण है प्रमाद।
गौतम! भगवन्! दु:ख का अंत-कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है?
भगवान्गौतम! दु:ख का अंत-कर्ता है जीव और उसका कारण है अप्रमाद।

(11) आत्मोत्तापकरा वृत्ति:, कषाय: परिकीर्तित:।
कायवाङ्मसां कर्म, योगो भवति देहिनाम्॥

जो वृत्ति आत्मा को उत्तप्त करती है, उसे ‘कषाय’ कहा जाता है। मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को ‘योग’ कहा जाता है।
कषाय का अर्थ हैआत्मा की उत्तप्ति। वे चार हैंक्रोध, मान, माया और लोभ। इनके अवांतर भेद सोलह होते हैं।
(1) अनंतानुबंधी (तीव्रतम)क्रोध, मान, माया और लोभ।
(2) अप्रत्याख्यानी (तीव्रतर)क्रोध, मान, माया और लोभ।
(3) प्रत्याख्यानी (तीव्र)क्रोध, मान, माया और लोभ।
(4) संज्वलन (सत्तामात्र)क्रोध, मान, माया और लोभ।
इनका विलय नौवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है और संपूर्ण विलय दसवें गुणस्थान में होता है। अनंतानुबंधी कषाय का प्रभुत्व दर्शन मोह के परमाणुओं से जुड़ा होता है। इनके उदयकाल में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। अप्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में व्रत का प्रवेश नहीं होता। इसके अधिकारी सम्यक्द‍ृष्टि हो सकते हैं, पर व्रती नहीं होते। प्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में चारित्र-विकारक पुद्गलों का पूर्ण विरोध नहीं होता। इसका अधिकारी महाव्रती नहीं बन सकता। संज्वलन कषाय का उदय वीतराग-चारित्र का बाधक है।
(क्रमश:)