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उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य सिद्धसेन
मुझे इस दंड से नहीं, बाधति धातु के प्रयोग से क्लेश हो रहा है। आचार्य सिद्धसेन जानते थे, मेरी अशुद्धि की ओर संकेत करने वाला व्यक्ति मेरे गुरु वृद्धवादी के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता, अत: आचार्य सिद्धसेन तत्क्षण सुखशिविका से नीचे उतरे, आत्मालोचन करते हुए गुरु-चरणों में गिर पड़े। आचार्य वृद्धवादी ने उन्हें प्रायश्चित्त-पूर्वक संयम में स्थिर किया एवं अपने स्थान पर गणनायक रूप में उनकी नियुक्ति की, तदनंतर अनशन ग्रहण कर परम समाधि में आचार्य वृद्धवादी स्वर्गवास को प्राप्त हुए।
आचार्य सिद्धसेन संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान् थे। उस समय संस्कृत भाषा का सम्मान बढ़ रहा था। प्राकृत भाषा ग्रामीण भाषा समझी जाने लगी। जैनेत्तर विद्वान् अपने-अपने ग्रंथों का निर्माण संस्कृत में करने लगे थे। आगमों को विद्वद्भोग्य बनाने के लिए सिद्धसेन ने भी आगम ग्रंथों को प्राकृत से संस्कृत में अनूदित करना चाहा। उन्होंने यह भावना गुरुजनों के सामने प्रस्तुत की। स्थितिपालक मुनियों द्वारा नवीन विचारों के लिए समर्थन पाने का मार्ग सरल नहीं था। सारे संघ ने आचार्य सिद्धसेन का प्रबल विरोध किया। श्रमण बोलेतीर्थंकर और गणधर संस्कृत नहीं जानते थे? उन्होंने अर्धमागधी भाषा में आगमों का प्रणयन क्यों किया? अत: आगमों को संस्कृत भाषा में अनूदित करने का विचार करना ही प्रायश्चित्त का निमित्त है।
संघ के इस अंतर्विरोध के फलस्वरूप आचार्य सिद्धसेन को मुनि वेश बदलकर बारह वर्ष तक गण से बाहर रहने का कठोर दंड मिला। इस पारांचित नामक दसवें प्रायश्चित्त को वहन करते समय आचार्य सिद्धसेन के लिए एक अपवाद था, बारह वर्ष की अवधि में उनसे जैनशासन की महनीय प्रभावना का कार्य संपादित हो सका तो दंड-काल की मर्यादा से पूर्व भी उन्हें संघ में सम्मिलित किया जा सकता है।
प्रबंध कोश के अनुसार सात वर्ष अन्यत्र परिभ्रमण करने के बाद सिद्धसेन अवंती में आए तथा शिव मंदिर में पहुँचकर प्रतिमा को नमन किए बिना ही बैठ गए। पुजारी ने उनसे पुन:-पुन: प्रतिमा को प्रणाम करने के लिए कहा, पर आचार्य सिद्धसेन पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। उन्होंने पुजारी की बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया। इस घटना की सूचना राजा के कानों तक पहुँची। विक्रमादित्य स्वयं शिव मंदिर में उपस्थित हुआ और सिद्धसेन से बोला, ‘क्षीर लिलिक्षो भिक्षो! किमिति त्वया देवो न वंद्यतेहे दूग्ध-पान करने वाले श्रमण! देव-प्रतिमा को वंदन नहीं करते?’ आचार्य सिद्धसेन बोले, ‘मेरा वंदन प्रतिमा सहन नहीं कर सकेगी।’
राजा बोला‘भवतु, क्रियतां नमस्कार:जो कुछ घटित होता है, होने दो। पहले वंदन करो।’
नरेश की आज्ञा से शिव-प्रतिमा के सामने बैठकर आचार्य सिद्धसेन ने काव्यमयी भाषा में उच्च स्वर में पार्श्वनाथ की स्तवना प्रारंभ की। फलस्वरूप आचार्य सिद्धसेन द्वारा स्तुति काव्य के रूप में ‘महान् प्रभावक कल्याण मंदिर’ स्तोत्र का निर्माण हुआ। कल्याण मंदिर स्तोत्र के ग्यारहवें श्लोक के साथ पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई।
आचार्य सिद्धसेन के इस कार्य से जैनशासन की महनीय प्रभावना शतगुणित होकर प्रसारित हुई। राजा विक्रमादित्य ने आचार्य सिद्धसेन का महान् सम्मान किया और उनका परम भक्त बन गया। राजा विक्रमादित्य की विद्वत्मंडली में भी आचार्य सिद्धसेन को गौरवमय स्थान प्राप्त हुआ।
आचार्य सिद्धसेन के प्रस्तुत प्रयत्न को संघ की अतिशय प्रभावना का महत्त्वपूर्ण अंग मानकर श्रमण संघ ने उन्हें दंड मर्यादा से पाँच वर्ष पूर्व ही गण में सम्मिलित कर लिया।
सिद्धसेन प्रगतिगामी विचारों के धनी थे। उनके नवीन विचारों का विरोध होना स्वाभाविक था। एक बार सिद्धसेन भृगुकच्छ (भृगुपुर) गए। भृगुपुर में उस समय बलमित्र के पुत्र धनंजय का राज्य था। राजा ने आचार्य सिद्धसेन का भक्तिपूर्वक सत्कार किया। धनंजय शत्रुओं से आक्रांत हुआ तब सिद्धसेन ने ही सैन्य संरचना की कला बताकर धनंजय को विजयी बनाया था।
सैन्य-रचना में सिद्धहस्त होने के कारण उनका नाम सिद्धसेन प्रसिद्ध हुआ प्रतीत होता है।
अवंती-नरेश विक्रमादित्य और बंग-नरेश देवपाल की तरह भूपति धनंजय भी आचार्य सिद्धसेन का परम भक्त बन गया। (क्रमश:)