स्वाध्याय से ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि हो सकती है : आचार्यश्री महाश्रमण
बीदासर, 8 फरवरी, 2022
जैन जगत की महान विभूति आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आगम वाङ्मय एक उच्च कोटि का साहित्य हमारे लिए है। साहित्य ज्ञानवर्धक भी होता है। ज्ञान के बिना अंधकार हो जाता है। ज्ञान का माध्यम साहित्य बनता है। पढ़ने से ज्ञान प्राप्ति हो सकती है। ज्ञान अपने आपमें शुद्ध-पवित्र तत्त्व है। बाद में ज्ञान का उपयोग आदमी क्या करता है? वो अशुद्ध या शुद्ध हो सकता है। ज्ञान के लिए हमे उसके अर्जन का प्रयास करना चाहिए। दुनिया में साहित्य इतना है कि सारा साहित्य पढ़ पाना भी मुश्किल है। ज्ञान का कोई ओर-छोर नहीं है। हमारे धर्मसंघ का कितना साहित्य भरा पड़ा है। ज्ञान भी आकाश के समान अनंत है। केवल ज्ञान तो वर्तमान में असंभव है। मति, श्रुत या अवधिज्ञान हो सकता है। अतीन्द्रिय ज्ञान हो सकता है। मति-श्रुत ज्ञान भी उच्च स्तर के हो सकते हैं। आचार्य तुलसी में कितना ज्ञान था। कितने हजार गाथाओं को कंठस्थ किया था। वे विशेष महापुरुष थे। सुंदर हमारा ज्ञान और साधना होनी चाहिए। गुरुदेव महाप्रज्ञ जी ने फरमाया हैकानो की छटा निराली, आँखें इमरत की प्याली। किसने सौंदर्य सजाया रे, महाप्राण गुरुदेव।
चेहरे की सुंदरता से भी ज्ञान की सुंदरता का अधिक महत्त्व है। यह एक प्रसंग से समझाया। गुरुदेव महाप्रज्ञजी में भी कितना ज्ञान था। मति श्रुतज्ञान में तारतम्य रह सकता है। दसवेंआलियं बड़ा महत्त्वपूर्ण आगम है। यह प्राय: सभी को कंठस्थ हो। उत्तराध्ययन भी याद करने का प्रयास हो। दीक्षा पर्याय के 25 वर्ष से ज्यादा हो गए तो आगम कितने पढ़ें? आगम पढ़ते रहें। पढ़ते-पढ़ते ज्ञान भी बढ़ता है।
आगम के स्वाध्याय से हमारे संयम के पर्यव भी निर्मलता को प्राप्त हो सकते हैं। स्वाध्याय से ज्ञानवृद्धि और वैराग्य वृद्धि दोनों हो सकती है। लिखने वाले लिखते भी हैं। आचार्य भिक्षु व जयाचार्य के साहित्य को देखें, कितना ज्ञान भरा हुआ है। आचार्य भिक्षु के साहित्य तेरापंथ का शास्त्र है। उच्च कोटि का साहित्य है।
शास्त्रकार ने दो श्लोकों में एक संदेश दिया है कि कैसे एक लड़के ने मूल पूँजी जो पिता ने सौंपी उसे भी गँवा दी। दूसरे बेटे ने मूल पूँजी की सुरक्षा की। तीसरे बेटे ने मूल पूँजी से धन को खूब कमा लिया। जिसने कमायी की वो सेठ को सबसे प्यारा बेटा लगेगा। हम सब जिनेश्वर भगवान के बेटे हैं। एक मनुष्य ऐसा है, जो इतना धर्म-ध्यान करता है कि मृत्यु के बाद देव गति या मोक्ष में चला जाए। एक मनुष्य न धर्म करता न पाप करता, मरकर वापस मनुष्य गति में आ गया। एक ऐसा आदमी जो पाप खूब करता है, जो मरकर नरक या तिर्यंच गति में पैदा होता है। मनुष्य जन्म मूल पूँजी है। यह श्लोक द्वि आत्मचिंतन- आत्मावलोकन की सामग्री प्रस्तुत करने वाली है। हम यह सोचें कि मैं कैसा हूँ। कौन से बेटे के समान हूँ। दुनिया में ऐसे लोग भी हैं, जो पाप-कर्म करके नरक में पैदा हो जाते हैं या तिर्यंच योनि में चले जाते हैं। वे मूल पूँजी खो देते हैं। सम्यक् दृष्टि होता है, उस स्थिति में आयुष्य बंध आदमी करता है तो न नरक में जाएगा न तिर्यंच में जाएगा, मरकर न वापस मनुष्य बनेगा, देवों में भी न भवनपति, न व्यंतर, न ज्योतिष्क केवल वैमानिक देवगति में जाकर ही पैदा होगा। सम्यक्त्वी होने का भी बड़ा लाभ होता है। मूल लाभ तो है कि आत्मा का कल्याण होता है। सम्यक्त्वी है, तो न स्त्री वेद का बंध न नपुंसक वेद का बंध वह तो पुरुष वेद में ही पैदा होगा। हम यह चिंतन-मनन करते रहें कि मेरा ज्ञान कैसे बढे़? ज्ञान का उपयोग मैं अच्छा करूँ। अध्यात्म का ज्ञान है, शास्त्रों का ज्ञान है, व्यावहारिक कल्याण का ज्ञान है, प्रवचन आदि में उसका अच्छा उपयोग करते रहें, तो हमारा ज्ञान स्व-पर कल्याण कर सकता है। इस प्रकार का ज्ञान हमारे द्वारा अर्जित होता रहे, यह काम्य है। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में साध्वी सुमनश्रीजी, बीदासर, साध्वी विमलप्रभाजी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। पारस गोलछा ने गीत की प्रस्तुति दी। शासन गौरव साध्वी राजीमती जी ने श्रावक समाज को विशेष प्रेरणा प्रदान करते हुए अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने तीन धर्म दानज्ञानदान, अभयदान और संयति दान के बारे में विस्तार से समझाया।