उपासना

स्वाध्याय

उपासना

आचार्य महाश्रमण

(भाग - एक)

आचार्य हरिभद्र

एक बार रात्रि को राजसभा से लौटते समय राजपुरोहित हरिभद्र जैन उपाश्रय के पास से गुजरे। उपाश्रय में साध्वी-संघ की प्रवर्तिनी ‘महत्तरा याकिनी’ संग्रहणी गाथा का उच्च ध्वनिपूर्वक जाप कर रही थी।

चक्कि दुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की।
केसव चक्की केसव, दुचक्की केसव चक्कीय।।

श्लोक की स्वर-लहरियाँ हरिभद्र के कानों में टकराईं। उन्होंने इसे बार-बार ध्यानपूर्वक सुना। मन ही मन चिंतन चला पर बुद्धि को पूर्णतः झकझोर देने के बाद भी वे अर्थ के नवनीत को न पा सके। हरिभद्र के अहं पर यह पहली बार करारी चोट थी। अर्थबोध पाने की तीव्र जिज्ञासा उनको उपाश्रय तक ले गई। उपाश्रय में प्रवेश करने के बाद दूर खड़े होकर अभिमानी हरिभद्र ने महत्तराजी से पूछाµ‘इस स्थान पर चकचकाहट किस बात में हो रही है? अर्थहीन पद्य का पुनरावर्तन क्यों किया जा रहा है?’ हरिभद्र ने यह प्रश्न अतिवक्र भाषा में प्रस्तुत किया था।
याकिनी महत्तराजी धीर-गंभीर, आगम-विज्ञ और व्यवहार-निपुण साध्वी थी। उन्होंने मृदु शब्दों में कहाµ‘नूतनं लिप्तं चिगचिगायते’ नया लिपा हुआ आँगन चकचकाहट करता है। यह शास्त्रीय पाठ है। इसे गुरु-निर्देश बिना समझा नहीं जा सकता। याकिनी द्वारा दिए गए स्पष्ट और सारर्गीिात उत्तर को सुनकर विद्वान् हरिभद्र प्रभावित हुए। वे झुके और बोलेµसाध्वीजी! कृपा कर मुझे इसका अर्थ समझाइए।
अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार शिष्य-दीक्षा प्रदान करने की बात भी उन्होंने साध्वी याकिनी के सामने विनम्र शब्दों में प्रस्तुत की।
कथावली प्रसंग के अनुसार श्लोक का अर्थ पूछने पर महत्तराजी उनको अपने गुरु जिनदत्तसूरि के पास ले गई और पूर्व घटना की सारी स्थिति अपने गुरु के सामने रखी। जिनदत्तसूरि ने सविस्तार श्लोक का अर्थबोध दिया। विद्वान् हरिभद्र जिनदत्तसूरि से ज्ञान-दान प्राप्त कर परम तुष्ट हुए। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा की बात भी गुरु के सामने रखी। जिनदत्तसूरि ने विद्वान् हरिभद्र से कहाµ‘तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार महत्तराजी के धर्म-पुत्र बन जाओ।’ राजपुरोहित ने कहाµ‘धर्म क्या होता है?’ जिनदत्तसूरि ने सम्यक् रूप से धर्म का स्वरूप समझाया। हरिभद्र सच्चे जिज्ञासु थे। उन्होंने नम्र होकर पूछाµ‘धर्म का फल क्या होता है?’
जिनदत्तसूरि भी ज्ञान के अक्षय भंडार थे। उन्होंने कहाµ‘पंडितवर्य! सकाम वृत्ति वालों के लिए धर्म का फल स्वर्गादि की प्राप्ति है। निष्काम वृत्ति वालों के लिए जैन धर्म का फल भव-विरह (संसार-संतति का विच्छेद) है। हरिभद्र बोलेµ‘मुझे भव-विरह ही प्रिय है।’
महा कारुणिक दया के सागर जिनदत्तसूरि बोलेµ‘भद्र! भव-विरह की उपलब्धि के लिए सर्वपाप-निवारक मुनि-वृत्ति को तुम ग्रहण करो।’ आचार्य जिनदत्तसूरि के दर्शन के विद्वान् हरिभद्र के सांसारिक वासना का संस्कार क्षीण हो गया। भव-विरह की बात उनके मानस को वेध गई। वे मुनि-दीक्षा लेने के लिए प्रस्तुत हुए। ब्राह्मण-समाज को बुलाकर उनके सामने उन्होंने जैन मुनि बनने की भावना प्रकट की। अपने संप्रदाय के प्रति दृढ़ आस्थाशील ब्राह्मणों द्वारा राजपुरोहित हरिभद्र के इन विचारों का विरोध होना स्वाभाविक था। वैसा ही हुआ। किसी ने भी उनको समर्थन नहीं दिया। विद्वान् हरिभद्र बोले-

न वीतरागादपरोऽस्ति देवो, ब्रह्मचर्यादपरं चरित्रम्।
नाभीतिदानात् परमस्ति दानं, चारित्रिणो नापरमस्ति पात्रम्।।

वीतराग से परे कोई देव नहीं है। ब्रह्मचर्य से श्रेष्ठ कोई आचार नहीं है। अभयदान से श्रेष्ठ कोई दान नहीं है। चरित्रगुण-मंडित पुरुष से उन्नत कोई पात्र नहीं है।
विवेक-बुद्धि से अपने समाज को अनुकूल बनाकर तथा उनसे सहमति प्राप्त कर विद्वान् हरिभद्र जैन मुनि बने। वे राजपुरोहित से धर्मपुरोहित बन गए और साध्वी याकिनी महत्तरा को उन्होंने धर्मजननी के रूप में अपने हृदय में स्थान दिया। आज भी उनकी प्रसिद्धि याकिनी-सूनु के नाम से है।

(क्रमशः)