उपासना

स्वाध्याय

उपासना

उपासना (भाग - एक)

मुनि आचार संहिता से संबंधित नाना प्रकार की शिक्षाएँ उन्हें गुरु से प्राप्त हुईं। अपने गण के परिचय-प्रसंग में गुरु ने हरिभद्र मुनि को बतायाµ‘आगम प्रवीणा साध्वी समूह में मुकुटमणि श्री को प्राप्त महत्तरा उपाधि से अलंकृत साध्वी याकिनी मेरी गुरुभगिनी है।’
हरिभद्र ने भी याकिनी महत्तरा के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट करते हुए कहाµमैं शास्त्रविशारद होकर भी मूर्ख था। सुकृत के संयोग से निजकुल देवता की तरह धर्ममाता याकिनी के द्वारा मैं बोध को प्राप्त हुआ हूँ।
आचार्य हरिभद्र वैदिक दर्शन के पारगामी विद्वान् पहले से ही थे। जैन श्रमण-दीक्षा लेने के बाद वे जैन दर्शन के विशिष्ट विज्ञाता बने। उनकी सर्वतोमुखी योग्यता के आधार पर गुरु ने आचार्य पद पर नियुक्त किया।
आचार्य हरिभद्र के पास हंस और परमहंस दीक्षित हुए। वे दोनों आचार्य हरिभद्र के भगिनीपुत्र थे। हरिभद्र ने उन्हें प्रमाणशास्त्र का विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया। दोनों शिष्यों ने एक बार बौद्ध प्रमाणशास्त्र के अध्ययनार्थ इच्छा प्रकट की। उन्होंने कहाµ‘यह अध्ययन बौद्ध विद्यापीठ में जाकर ही किया जा सकता है।’
आचार्य हरिभद्र ज्योतिषशास्त्र के विद्वान् थे। उनके निर्मल ज्ञान में अनिष्ट घटना का आभास हुआ। उन्होंने इस कार्य के लिए उन्हें रोका, पर व न रुके। गुरु के आदेश की अवहेलना कर दोनों वहाँ से प्रस्थित हुए। वेश बदलकर बौद्धपीठ में प्रविष्ट हुए। विद्यार्थी-दल में युग्म सहोदर प्रतिभा-संपन्न छात्र थे। बौद्ध अध्यापकों के पास वे बौद्ध प्रमाणशास्त्र पढ़ते व अपने स्थान पर आकार जैन दर्शन से बौद्ध दर्शन के सूत्र की तुलना करते हुए स्वपक्ष-विपक्ष के समर्थन और निरसन में तर्क-वितर्क पत्र पर लिखते थे। इस रहस्य का उद्घाटन दैवीशक्ति द्वारा हुआ। बौद्ध अधिष्ठात्री ‘तारादेवी’ ने वायु-वेग से पत्र को उड़ाकर उसे लेखशाला में उाल दिया। पत्र के शीर्ष स्थान पर ‘नमो जिनाय’ लिखा था। बौद्ध छात्रों ने उसे देखा और उसे उपाध्याय के पास ले गए। उपाध्याय ने समझ लियाµयहाँ छद्मवेश में अवश्य कोई जैन छात्र पढ़ रहा है। परीक्षा के लिए वाटिका के द्वार पर जिन प्रतिमा की स्थापना कर सबको गुरुजनों ने जिन-प्रतिमा पर चरण रखकर आगे बढ़ने का आदेश दिया। बौद्ध जानते थे, कोई भी जैन जिन-प्रतिमा पर पैर नहीं रखेगा। आदेश प्राप्त होते ही विद्यार्थी प्रतिमा पर चरण-निक्षेप करते हुए चले गए। हंस और परमहंस के सामने धर्मसंकट उपस्थित हो गया। उन्होंने समझ लिया कि यह सारा योजनाबद्ध उपक्रम हमारी परीक्ष के लिए ही किया गया है। आचार्य हरिभद्र द्वारा बार-बार निषेध किए जाने पर भी वे आग्रह-पूर्वक यहाँ पढ़ने आए थे। गुरुजनों के आदेश-निर्देश की अवहेलना का परिणाम अहितकर होता है, यह उन्हें सम्यक् प्रकार से अवगत हो गया। दोनों ने एकांत में विचार-विमर्श किया। ज्येष्ठ बंधु ने खटिका से प्रतिमा पर ब्रह्मसूत्र की रेखा खींचकर जिन प्रतिमा की प्रतिकृति को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया और उस पर चरण रखकर आगे बढ़ा। परमहंस ने हंस का अनुगमन किया। यह काम हंस ने अत्यंत त्वरा और कुशलता से किया। वे युगल बंधु अपने पुस्तक-पत्रों को लेकर वहाँ से पलायन करने में सफल हो गए। संयोग की बात थी कि हंस का मार्ग में ही प्राणांत हो गया। दूसरा हरिभद्र के चरणों में आकर गिरा। पुस्तक-पत्र उनके हाथों में सौंपकर उसने अंतःतोष की अनुभूति की। गहरी थकान के बाद शिष्य का जीवन पूर्ण विश्राम की कामना कर रहा था। आचार्य हरिभद्र के देखते-देखते परमहंस का जीवन-दीप बुझ गया।
कथावली-प्रसंग के अनुसार आचार्य हरिभद्र के शिष्य जिनभद्र और वीरभद्र थे। चित्रकूट में आचार्य हरिभद्र के असाधारण प्रभाव से कुछ व्यक्तियों में ईर्ष्या का भाव पैदा हुआ और उन्होंने उनके दोनों शिष्यों को गुप्त स्थान पर मार डाला। यह प्रसंग आचार्य हरिभद्र के हृदय में सुतीक्ष्य शस्त्र की तरह घाव कर गया। उन्होंने अनशन की सोची। उनकी निर्मल प्रतिभा से जैनशासन की प्रभावना की महान् संभावना थी अतः सबने मिलकर उन्हें इस कार्य से रोका। आचार्य हरिभद्र ने संघ की बात को सम्मान प्रदान कर अपने चिंतन को मोड़ा। शिष्य-संतति के स्थान पर वे ज्ञान-संतति के विकास में लगे। उनकी वृत्तियों का शोध हुआ, पर शिष्यों की वेदना उनके हृदय में कम न हुई, अतः प्रत्येक ग्रंथ के साथ उन्होंने विरह शब्द को जोड़ा है। आज भी आचार्य हरिभद्र कृत ग्रंथों की पहचान, अंत में प्रयुक्त यह ‘विरह’ शब्द है।
आज आचार्य हरिभद्रसूरि का संपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं है पर जो कुछ भाग्य से प्राप्त है वह उच्च कोटि का है। उसमें आचार्य हरिभद्र की अमेय मेधा के दर्शन होते हैं। शोध लेखकों के लिए उनके ग्रंथ पर्याप्त सामग्री प्रदान करने वाले हैं।
अध्यात्म साधना में लीन हरिभद्राचार्य ने जीवन के संध्याकाल में अनशन की स्थिति को उल्लास से स्वीकार किया। भावों की उच्च श्रेणी में त्रयोदश दिवस का अनशन संपन्न कर वे परम समाधि के साथ स्वर्गवास को प्राप्त हुए।
विद्वान् आचार्य जिनविजयजी ने हरिभद्र का समय वी0नि0 1229 से 1297 (वि0सं0 757 से 827) तक निर्णीत किया है।

(क्रमशः)