समाज सृष्टा, नीति निर्माता व धर्म तीर्थ के आद्य प्रणेता
भारतीय जनमानस पर जिन महापुरुषों का मानव जाति पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है, उनमें आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का प्रमुख स्थान कहा जा सकता है। भगवान का व्यक्तित्व और कर्तव्य का प्रभाव आज भी जनजीवन पर परिलक्षित हो रहा है।
जैन, बौद्ध, वैदिक और यहाँ तक कि इस्लाम परंपरा में भी भगवान ऋषभ का प्रभाव देखा जा सकता है। यद्यपि भगवान का प्रभाव समय वर्तमान काल गणना की परिधि में नहीं आ सकता है। वे प्रागैतिहासिक महापुरुष हुए हैं। उनकी जीवन गाथा गंगोत्री के प्रभाव की तरह निर्मल, पवित्र रही है। जो कि हजारों-लाखों वर्षों से पूर्व जनजीवन को प्रेरणा प्रदान करती आ रही है। भगवान ऋषभ एक महापुरुष थे जिन्होंने भोग भूमि के मानव को कर्म भूमि व धर्म भूमि में जीने लायक बनाया। असि मसि व कृषि की शिक्षा से शिक्षित कर जन-जीवन में सुख-शांति की स्थापना की।
भगवान ऋषभ धर्म तीर्थं के आद्य प्रेरणा समाज सृष्टा व नीति निर्माता होने के कारण आदम बाबा से विश्रुत हुए। भारतीय इतिहास में चैत्र कृष्णा अष्टमी का दिन भी सदा स्मरणीय बना हुआ है, क्योंकि इस दिन राजा ऋषभ राज्य वैभव को ठुकराकर परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति के लिए संन्यास मार्ग पर प्रतिष्ठित हुए, साधना के क्षेत्र में उपस्थित होने पर उन्होंने ‘सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि’ अर्थात् आज से सर्व पापकारी प्रवृत्ति का त्याग कर दिया। दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात वे परिवार, समाज और देश के कर्तव्यों से ऊपर उठ गए और विश्व मैत्री की विराट भावना उनकी आधारशिला बन गई, भगवान अब मौन-साधना में लीन हो गए।
जब भगवान भिक्षा के लिए अग्लान चित्त तथा अव्यवस्थित मन से ग्रामों, नगरों में भ्रमण करते किंतु उस समय भोली जनता साध्वाचार के अनुसार क्या देना, इस भिक्षा की विधि से बिलकुल अनजान, अनभिज्ञ और अपरिचित थे। अतः ऐसे महान राज ऋषि को अपने भक्ति भावना से भाव-विभोर होकर कोई। उन्हें रूपवती कन्या का, कोई बहुमूल्य वस्तुओं का, बहुमूल्य आभूषणों का, सिंहासन, हाथी-घोड़े आदि लेने के लिए मनुहार करते, पर एक अकिंचन के लिए उनका कोई उपयोग नहीं था। पर आहार दान के लिए कोई नहीं कहता। यूँ करते-करते लगभग एक वर्ष का समय व्यतीत हो रहा था। भगवान के तप का क्रम चल रहा था।
एक बार भगवान ऋषभ का संसारपक्ष पड़पौत्र श्रेयांस ने रात्रि में स्वप्न दर्शन में अपने हाथों से मेरु पर्वत को अमृत से सिंचन करते हुए देखा। प्रातःकाल महल के गवाक्ष में बैठा हुआ इस स्वप्न के बारे में सोच रहा था कि लगता है कि मेरे हाथों से कोई महान कार्य होने वाला है। इतने में गवाक्ष में बैठा दूर से आते हुए भगवान ऋषभ को देखा और पूर्वभव स्मृति हो गई और महलों से नीचे उतरकर भगवान ऋषभ के सामने आया, वंदन करके भगवान को भिक्षा ग्रहण करने का निवेदन किया। भगवान भिक्षा हेतु पधारे उस समय किसानों द्वारा भेंट स्वरूप इक्षुरस घड़ों में भरे हुए आए थे। राजकुमार श्रेयांस अहोभाव से बहराने के लिए तैयार हुआ। भगवान ने अछिद्र कर पात्र से इक्षु रस से पारणा किया। वह दिन तृतीया का था गगन मंडल में ‘अहोदानं-अहोदानं’ की दिव्य ध्वनि हुई। देवताओं ने रत्नों की वृष्टि की और उस दिन को आज अक्षय तृतीया के रूप में मनाते हैं। जैन परंपरा में उस दिन की स्मृति में अनेक श्रावक-श्राविका वर्ष भर एक दिन का उपवास फिर एक दिन का पारणा करते हुए वर्षीतप करते हैं, क्योंकि निरंतर एक वर्ष तक भूखा रहकर तप करना वर्तमान में अशक्य है।
अन्य परंपरा में अक्षय तृतीया का पर्व परशुराम जयंती के रूप में मनाते हैं इस दिन को अबूझ मुहूर्त के रूप में माना गया है। कोई भी शुभ कार्य बिना किसी रोक-टोक के किया जा सकता है। आज का यह मंगल दिवस मानव जाति के लिए मंगलमय रहे तथा जीवन में अक्षय सुख-शांति प्रदान करने वाला बने।