अंतिम सांस तक श्रावक्त्व को सुरक्षित रखने का प्रयास हो: आचार्यश्री महाश्रमण
सरदारशहर, 30 अप्रैल, 2022
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने तीर्थंकर की वाणी का रसास्वादन करते हुए फरमाया कि आदमी के जीवन में राग भी होता है। कई बार द्वेष भी आ जाता है। स्नेह-भाव भी होता है। जब तक मनुष्य वीतराग नहीं बन जाता और छठे गुणस्थान में होता है, तब तक किसी पदार्थ के प्रति आकर्षण हो गया, मोह हो गया या द्वेष हो गया या स्नेहभाव प्रकट हो गया, ऐसी स्थितियाँ हो सकती हैं।
छठा गुणस्थान एक ऐसा स्थान है कि साधु होने पर भी प्रमाद-गलतियाँ हो सकती हैं। सातवें गुण स्थान से साधु के प्रवृत्ति कोई अशुभ योग रूप में नहीं हो सकती। छठे गुणस्थान में साधु वंदनीय-पूजनीय है। बहुत निर्मलता भी हो सकती है, परंतु योगरूप प्रमाद-गलतियाँ हो सकती है। छोटे-छोटे दोष लग जाते हैं, पर उनका परिमार्जन करने का प्रयास करना चाहिए।
साधु के बड़ी गलती हो जाने से उसका साधुपन भी जा सकता है, फिर उसे नए रूप में दीक्षा क्रम में आना पड़ता है। ये राग-द्वेष ऐसे तत्त्व हैं, जो आदमी से व साधु से भी गलतियाँ करा देते हैं। गृहस्थ भी जो साधनाशील है, अपने जो व्रत-नियम लिए हुए हैं, उनमें जागरूकता रहे, उनमें दोष न लगे। दोष लग जाए तो उसका प्रायश्चित्त करने की भावना रखनी चाहिए। आलोयणा गुरु या चारित्रात्मा से ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए। गिरने के भय से चलना नहीं बंद करना चाहिए। थोड़ी सावधानी रखो, संभल जाओ।
राग-द्वेष कर्म के बीज हैं। ये जितने हल्के पड़ेंगे आत्मा शुद्ध बन सकेगी। शुद्वता की दिशा में आगे बढ़ सकेगी। आचार्य भिक्षु एवं विजय सिंह पटवा के सामायिक रुपये की थैली वाले प्रसंग से समझाया कि रुपयों की चिंता छोड़ सामायिक पर ध्यान दें। संपत्ति से ज्यादा सामायिक का महत्त्व है।
श्रावक के जो व्रत-नियम लिए हुए हैं, उनमें निर्मलता-निर्दोषता रहे। जीवन में कोई पंचेंद्रिय जीव की हिंसा हो जाए या करवानी पड़े तो बाद में उसकी आलोयणा ले शुद्धि करानी चाहिए। कपड़े या पैर गंदे हो जाएँ तो उन्हें धोकर साफ किया जा सकता है। संयम भी कपड़े की तरह है, उस पर अगर दाग लग जाए तो उसे प्रायश्चित्त लेकर धो डालना चाहिए।
श्रावकत्व मिलना भी एक अच्छी उपलब्धि है। श्रावक होना एक पद पर होने के समान है और पद तो जा सकता है, अस्थिर है, पर श्रावकत्व को बचाकर रखें। अंतिम श्वास तक श्रावकत्व सुरक्षित बना रहे। मेरी देव, गुरु और धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा बनी रहे। वीतराग ने जो कह दिया वो ही सही है। यथार्थ की श्रद्धा रहे।
श्रद्धा के साथ ज्ञान भी रहे। श्रद्धा समझपूर्वक हो। तत्त्व को, जीव-अजीव को, आत्मा को समझने की भावना रखें। पूज्य डालगणी व वीरचंद भाई के प्रसंग से समझाया कि श्रावक को तत्त्व को समझकर श्रद्धा स्वीकार करनी चाहिए। अगर बात सही है, तो उसका खंडन भी नहीं करना चाहिए। श्रद्धा-ज्ञान के साथ क्रियाएँ भी हों तो श्रावक्त्व में परिपूर्णता आ जाती है। जैसे खीर में दूध के साथ चावल भी है, चीनी भी है, तो खीर स्वादिष्ट बन सकती है। इसी तरह श्रावक्त्व में श्रद्धा भी हो, ज्ञान भी हो और क्रिया भी हो। राग-द्वेष जितने कम होते हैं, तो श्रद्धा भी अच्छी, ज्ञान भी अच्छा और साथ में क्रिया भी अच्छी हो तो श्रावक्त्व में अच्छा निखार आ सकता है।
साध्वीवर्याजी ने कहा कि दुनिया में दुःख है, यही सत्य है। ये संसार अध्रुव, अशाश्वत और दुःख बहुल है। दुःख अनेक कारण से हो सकता है। जन्म, जरा, रोग और मृत्यु दुःख है। दुःख का मूल कारण है-इच्छाएँ-कामनाएँ। आकाश के समान इच्छाएँ अनंत हैं। इच्छाएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं-जैसे-आध्यात्मिक-आत्मिक सुख पाने की इच्छा, लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा और भौतिक सुख पाने की इच्छा। तृष्णापूर्ण इच्छाएँ ज्यादा दुःखी बनाती हैं। जरूरत पूरी हो सकती है, इच्छा नहीं।
पूज्यप्रवर की अभ्यर्थना में नरेंद्र दुगड़, विकास बैद, सरिता सामसुखा, शहजाद-युवान, उषा बरड़िया, कल्पना सेठिया, अंतिमा नखत ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि व्यक्ति की बोली से पता चल जाता है कि वह कैसा है।