युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
सागर को गागर में भरने का करती सविनय आयास।
विस्तृत नभतल को बाहों में थामूं मन में नव उल्लास।।
मरु की बंजर माटी में भी अनमोला यह रत्न मिला है
आशापूरण करने वाला मनहर कल्पवृक्ष खिला है
चरण सन्निधि पतझड़ में भी लाती है अभिनव मधुमास।।
पल-पल कल-कल बहती भीतर शान्तिसुधा की पावन धारा
वत्सलता की शुभ्र चांदनी भरती अन्तस् में उजियारा
आभामण्डल में होता है स्वर्ग सुखों का नितअहसास।।
पुण्य प्रेरणा के सिंचन से पुष्पित है उन्नति का तरूवर
प्यासे मन की प्यास बुझाता विभुवर तेरा करुणा सरवर
आकर्षित करता है सबको निर्मल तेजस्वी संन्यास।।
क्या छोड़ूं क्या-क्या बतलाऊं तुम अक्षय सद्गुण भंडार
शब्दों के पंखों से कैसे भाव गगन का पाऊं पार
भक्त्यान्वित हो भगवन् फिर भी करती कुछ अक्षर विन्यास।।
जनहित खातिर तनहित छोड़ा हे निष्काम! तुम्हें प्रणाम
जिनभक्ति को निजभक्ति माना हे अगम्य! तुम्हें सलाम
पादम्बुज की रजकण बनकर, वर दो पाऊं गुरुकुलवास।।