आत्मा को सदात्मा बनाने के लिए अपनाएँ अणुव्रत जीवनशैली: आचार्यश्री महाश्रमण
श्रीडूंगरगढ़, 25 जून, 2022
श्रीडूंगरगढ़ के प्रवास का तीसरा दिन। आत्मरमण के साधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि शास्त्रकार ने कहा है कि एक आदमी जो किसी का कंठ छेदन कर देता है, मार देता है, वह व्यक्ति बड़ा नुकसान करने वाला होता है। परंतु उससे भी बड़ा नुकसान करने वाली खुद की दुरात्मा बनी आत्मा होती है। गला काटने वाला व्यक्ति एक जीवन का नाश कर देता है, परंतु दुरात्मा तो जन्मों-जन्मों तक नुकसान भोगने वाली बन सकती है। आत्मा के चार प्रकार हैं। यों पच्चीस बोल में पंद्रहवाँ बोल आठ आत्माएँ बताई गई हैं। वे अलग वर्गीकरण है।
आत्मा के चार प्रकार हैंµपरमात्मा, महात्मा, सदात्मा, दुरात्मा। परमात्मा तो परम अवस्था मोक्ष में गई हुई आत्मा है। अर्हत् को भी परमात्मा के रूप में मान लें, वे तो बहुत ऊँची स्थिति में है। हमारी भावना रहे कि हम भी कभी परमात्मा पद को प्राप्त करें। हमारे लिए वर्तमान में तो परमात्मा अदृश्य है। जिनके मन, वाणी और शरीर में एकरूपता है, साधु पुरुष है, घर-परिवार के त्यागी हैं, वे महात्मा होते हैं। महात्मा साधु वंदनीय, पूजनीय होते हैं। साधु तो सब लोग न भी बन सकें, पर गृहवासी रहने वाला भी सदात्मा बन सकता है। जिसके जीवन में सदाचार है, वह गृहस्थ सदात्मा है। श्रावक है, व्रती है, त्यागी है, वो सदात्मा हो जाते हैं।
चौथा प्रकार हैµदुरात्मा यानी खराब आत्मा। हिंसा, चोरी, लूटपाट जो जघन्य निंदनीय कार्य है, उनमें रचे-पचे निंदनीय कार्य करने वाले होते हैं, वे दुरात्मा होते हैं। जो आत्मा दुरात्मा बन जाती है, वो अपना इतना नुकसान कर लेती है कि उतना नुकसान गला काटने वाला दुश्मन भी नहीं करता है। दुरात्मा जब जीवन में भयंकर पाप करता है, पर जब मौत निकट आई हुई लगती है, तब वह सोचता है, मैंने तो पाप बहुत किए हैं, धर्म बिलकुल नहीं किया, अब मेरा क्या होगा? उसको पश्चात्ताप हो सकता है। अपना इतना पाप करने वाला नरक में जाता है।
साधु के जीवन में तो धर्म की साधना होनी ही चाहिए। गृहस्थ के जीवन में सदाचार की बात रहनी चाहिए। जीवन में अणुव्रत आ जाए। अणुव्रत के अनुरूप जीवनशैली वाला आदमी सदात्मा बन सकता है। आदमी के जीवन, आचरण में धर्म हो। जीवन में अर्थ चाहिए पर अर्थ कदर्थ न बन जाए। अनैतिक-अशुद्ध साधनों से जो पैसा अर्जित किया जाता है, वो खराब पैसा हो सकता है। आदमी को उपासना धर्म भी करना चाहिए, साथ में जीवन व्यवहार भी अच्छा हो। कम से कम आचरणों में धर्म हो। अहिंसा-संयम तो हर धर्म पंथ में अच्छी बताई गई है। विकास करना है तो अहिंसा के पथ पर चलो। जीवन में सद्भावना हो। हर कार्य में नैतिकता रहे, मैत्री रहे, नशामुक्ति अपनाएँ।
धर्म ऐसा तत्त्व है, जो हमारे भीतर में रहे। भीतर में होगा वैसा व्यवहार में आ सकेगा। हमारा भाव शुद्ध रहे, विचार अच्छे रहें, दृष्टिकोण सम्यक्-उदारतापूर्ण रहे। आदमी को शांति-अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिए। सद्भावना, नैतिकता, नशामुक्ति यह सूत्रत्रयी जीवन में रहती है, जो जीवन अच्छा रह सकता है। श्रीडूंगरगढ़ में भवन दो हैं, पर समाज एक है। पूज्यप्रवर ने श्रावकों की अर्ज सुनी, आगे संपर्क बना रहे, यह फरमाया।
साध्वीवर्याजी ने कहा कि हर व्यक्ति के जीवन में यह प्रश्न हो सकता है कि मुझे क्या बनना है? विकास दो तरह का हो सकता हैµबाह्य और आंतरिक। बाह्य विकास तो बाजरी के पौधे की तरह है, जो कुछ महीनों में हो सकता है। पर आंतरिक विकास के लिए समय चाहिए। आम के वृक्ष के समान समय लगता है। व्यक्ति को यदि सर्वांगीण विकास करना है, जीवन में कुछ प्राप्त करना है, तो कुछ मापदंड होने चाहिए। पूज्यप्रवर के स्वागत में स्वागताध्यक्ष भीखमचंद पुगलिया, पवन सेठिया, पन्नालाल पुगलिया, तेरापंथ कन्या मंडल, किशोर मंडल महिला मंडल, अंजू पारख, दौलत डागा, मुस्लिम समाज से रमजान ने गीत, विजयराज सेवग, महावीर प्रसाद, श्याममहर्षि, सत्यजीत, सुनील लुणिया, संगीता दुगड़, रीतु सुराणा, अजय भंसाली, सरोज दुगड़, मिताली बोथरा, पूर्णिमा नाहटा, शशि नाहर, अरिहंत बाफना ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
शासनश्री साध्वी पानकुमारी जी ‘प्रथम’ की जीवनी का ग्रंथ ‘साधना सोपान’ श्रीचरणों में अर्पित किया गया। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।