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जैन धर्म का अभिनव संस्करण - तेरापंथ!
तेरापंथ धर्मसंघ के 263वें स्थापना दिवस पर विशेष
मुनि कमल कुमार
जैन धर्म अनादिकाल से चला आ रहा है परंतु तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना को 263 वर्ष हुए हैं। तेरापंथ धर्मसंघ के संस्थापक आचार्य भिक्षु थे। उनका जन्म राजस्थान के मारवाड़ संभाग में कांठा प्रदेश के कंटालिया नगर में पिता बल्लूशाह संकलेचा, माता दीपां बाई की कुक्षि से वि0सं0 1783 आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी मंगलवार को सिंह स्वप्न से हुआ। आपके माता-पिता स्थानकवासी संप्रदाय के साधु-साध्वियों की खूब सेवा करते थे। पारिवारिक जनों में धार्मिक संस्कार गहरे और भरपूर थे इसीलिए आपके परिवार से पड़दादा कपूर जी और चाचा पेमो जी ने दीक्षा ली और पड़दादा जी ने तपस्या और संथारा करके अपना काम सिद्ध किया।
आचार्य भिक्षु ने वि0सं0 1808 में पूज्य आचार्य रघुनाथ जी के पास बगड़ी नगर के गाँव बाहर वट वृक्ष के नीचे विशाल जनमेदिनी में दीक्षा ग्रहण की। उस समय पूज्यप्रवर ने आपको आयाचित आशीर्वाद दिया कि भीखण तेरा इस वट वृक्ष की तरह विकास हो। भिक्षु स्वामी ने गुरु के अनमोल बोल को सफल करने के लिए अपनी सजगता, सेवा, साधना, स्वाध्याय, सहिष्णुता, सरलता, समता का विशेष अभ्यास प्रारंभ कर दिया। मात्र सात वर्ष में ही आप एक साधनानिष्ठ, आचारनिष्ठ, आज्ञानिष्ठ, अनुशासननिष्ठ संत बनकर के उभरे और लोगों की आपके प्रति हार्दिक श्रद्धा वृद्धि गोचर हो रही थी।
उस समय साधुओं की आचार शिथिलता को लेकर राजनगर के श्रावक शंकाशील, अनास्थाशील हो गए। साधुओं को वंदन भी नहीं करते, जब ये संवाद पूज्यप्रवर के पास पहुँचा तब पूज्यप्रवर ने सोचा अगर राजनगर के श्रावकों को समय पर नहीं संभाला गया तो मेवाड़ के अन्य श्रावकों पर भी यह असर हो सकता है। पूज्यप्रवर ने राजनगर के श्रावकों को प्रतिबोध देने के लिए अपने टोले के योग्य संत भीखण जी को राजनगर भेजने का चिंतन किया। जब भीखण जी को यह चिंतन बताया तब उन्होंने गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर राजनगर की ओर प्रस्थान किया। राजनगर के श्रावकों को जब पता चला कि भीखण जी स्वामी हमारे यहाँ पधार रहे हैं, श्रावकों की खुशी का कोई पार नहीं रहा, उन्होंने भिक्षु स्वामी की अगवानी की। भिक्षु स्वामी के पधारते ही लोगों का दिल-दिमाग बिना कोई जिज्ञासा समाधान के ही खुल गया। दर्शन प्रवचन में लोगों का ताँता लग गया। भिक्षु स्वामी ने सोचा कि गुरुदेव ने फरमाया था कि वहाँ के लोग अनास्थाशील हो गए हैं, उन्हें धर्म में स्थिर करना है परंतु यहाँ तो कोई ऐसी बात ही नहीं लगी। एक दिन भिक्षु स्वामी ने कुछ श्रावकों से बात की और उन्हें सारी बात बताई, तब उन्होंने कहा आपका कथन सही है यह सब भक्ति भावना आपके प्रति ही है न कि संघ के प्रति। तब पूछा क्यों? तब श्रावकों ने स्पष्ट कहा कि साधुओं के आचार-विचार की शिथिलता को देखकर सबके दिमाग में अश्रद्धा के भाव हैं आपकी तपस्या, आपका आचार देखकर सभी नतमस्तक हैं। श्रावकों ने कहा आप आगम का अध्ययन करके बताएँ कि हमारी शंकाएँ सही हैं या गलत। आपके प्रति हमारा पूरा विश्वास है। भिक्षु स्वामी के मन में पहले भी कुछ शंकाएँ थीं वे जब पूज्यप्रवर के चरणों में उनका समाधान माँगते तब पूज्यप्रवर टाल-मटोल कर दिया करते थे। भिक्षु स्वामी को श्रावकों की जिज्ञासाएँ अन्यथा नहीं लगी फिर भी उन्होंने चातुर्मास में श्रावकों के निवेदन पर दो-दो बार आगम पढ़े और लगा कि आजकल हम आगम के अनुकूल नहीं चल रहे हैं फिर भी उन्होंने सोचा ये सब जिज्ञासाएँ गुरुदेव के दर्शन करेंगे तब गुरुचरणों में निवेदन करेंगे, फिर श्रावकों को सही बताएँगे।
भिक्षु स्वामी के मन में गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा थी। श्रावकों के पूछने पर भी भिक्षु स्वामी ने उन्हें समुचित समाधान नहीं दिया। उसी रात भिक्षु स्वामी को तेज बुखार आ गया, उस समय भिक्षु स्वामी ने सोचा अगर मेरा आयुष्य पूरा हो गया तो सद्गति मुश्किल है। उन्होंने संकल्प किया कि अगर रात में बुखार उतर जाए तो मैं सुबह श्रावकों के सामने स्थिति स्पष्ट कर दूँगा। संकल्प करते ही बुखार शांत हो गया। भिक्षु स्वामी ने सुबह श्रावकों को सांत्वना देते हुए फरमाया कि आपका कथन मिथ्या नहीं है परंतु आप इसका प्रचार मत करना। मैं चातुर्मास के पश्चात गुरुदर्शन कर सारी स्थिति निवेदन कर दूँगा, गुरुदेव अवश्य ही ध्यान दिलाएँगे। श्रावकों को भिक्षु स्वामी से पूरा संतोष हो गया। जब गुरुदेव के दर्शन किए, सारी स्थिति निवेदन की परंतु उसका कोई समाधान नहीं होने से दो वर्षों बाद वि0सं0 1816 को चैत्र सुदि नवमी को आप स्थानकवासी संप्रदाय से पृथक् हो गए और शुद्ध साधना के लिए वि0सं0 1817 आषाढ़ सुदि पूर्णिमा को नगर केलवा की अंधेरी ओरी में पुनः नई दीक्षा लेकर तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना की। उन्होंने समय-समय पर मर्यादाओं का निर्माण कर संघ को उन्नत बनाया। उनके फौलादी संकल्प का ही परिणाम है कि यह संघ उत्तरोत्तर प्रवर्धमान है। वर्तमान में इस संघ के ग्यारहवें अधिशास्ता युवामनीषी महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी हैं जिनकी कुशल अनुशासना में यह संघ जन-जन की आस्था का आधार बना हुआ है। स्वामी भीखणजी ने तेले की तपस्या में अर्थात् आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन नगर केलवा की अंधेरी ओरी में भाव दीक्षा स्वीकार की एक नए संघ की स्थापना हो गई।
इस संघ का नामकरण जोधपुर में ही 13 श्रावकों को दुकान में सामायिक करते देखकर एक सेवग जाबत के कवि ने घोषित कर दिया था। परंतु इसका विधिवत नाम मेवाड़ (केलवा) में आचार्य भिक्षु की भाव दीक्षा के पश्चात ही हुआ। 263वें स्थापना दिवस पर यह मंगलकामना करते हैं कि यह संघ मर्यादा और अनुशासन के कारण जन-जन की आस्था का आधार बना है और युगों-युगों तक अपनी इसी तरह आस्था का आधार बना रहे।