दूसरों पर अनुशासन करने की अर्हता के लिए जरूरी है निज पर शासन: आचार्यश्री महाश्रमण
श्रीडूंगरगढ़, 24 जून, 2022
त्रिदिवसीय श्रीडूंगरढ़ प्रवास का दूसरा दिन। समता के सागर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि अपनी आत्मा का दमन करना, यानी अपनी आत्मा को संयम में स्थित रखना। यह श्रेष्ठ है। शास्त्रकार ने आत्मा को संयमित रखने के दो साधन बताए हैं-संयम और तप। अगर आदमी स्वयं पर नियंत्रण नहीं करता है तो फिर दूसरे उस पर बंधन से, नियंत्रण करने का प्रयास करते हैं। एक आत्मानुशासन होता है, दूसरा परानुशासन होता है। आदमी अपनी इंद्रियों, अपनी वाणी, अपने शरीर पर अपना अनुशासन रखे। निज पर शासन, फिर अनुशासन। पहले हम स्वयं पर अनुशासन करें। तो फिर हमें दूसरों पर अनुशासन की अर्हता प्राप्त हो सकती है। वरना बात असंगत सी हो जाती है कि स्वयं शिष्य बनना नहीं चाहता और दूसरों का गुरु बनना चाहता है।
एक प्रसंग से समझाया कि अच्छा शिष्य वह होता है, जिसमें विनय, शालीनता हो। आत्मानुशासन हो। अच्छा गुरु भी वही हो सकता है, जिसमें विनय का भाव हो, आत्मानुशासन हो। गुरु कभी शिष्य रहे हो सकते हैं। हमारे धर्मसंघ में देखें पहले जितने आचार्य हुए हैं, सब शिष्य बने हुए रहे हैं। गुरुदेव तुलसी के समय के कनक मुनिश्री के प्रसंग को भी समझाते हुए बताया कि धर्म के पिता तो गुरु ही होते हैं। अनुशासन तो चाहे परिवार हो, समाज हो या राष्ट्र सबमें हो तो वह अच्छा चल सकता है। लोकतांत्रिक प्रणाली में भी अनुशासन चाहिए, वरना वह मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। राजतंत्र प्रणाली एवं सामाजिक प्रणाली में भी अनुशासन चाहिए।
बिना कर्तव्य निष्ठा और अनुशासन के यह लोकतंत्र का देवता भी मृत्यु और विनाश को प्राप्त हो जाएगा। जहाँ सारे नेता हो जाएँ, सारे बिना पांडित्य के पंडित हो जाएँ, सब महत्त्वाकांक्षी हो जाएँ वो राष्ट्र दुःखी बन सकता है। आदमी को अर्हता का विकास करना चाहिए। जीवन में अच्छी सेवा का महत्त्व है। पैसा, पद, प्रतिष्ठा मिले न मिले, आदमी के जीवन में सादगी है, सेवा की भावना है, वह महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है। सेवा करना धर्म है। हमारे साध्वी चारित्रयशा जी, समणी नियोजिका जी व वाइस चांसलर रहे हुए हैं। हमने सेवा के लिए भेज दिया। मौके पर चाहे पढ़ा लिखा विद्वान हो, पदासीन हो, वो आदमी सेवा में लग जाए।
हमारे में आत्मानुशासन रहे। अग्रणी भी सेवा दे। सेवा की भावना का अपना महत्त्व है। समाज में भी सेवा की भावना हो। मौके पर किसी जाति या पंथ का नाम गौण हो जाता है, वहाँ इंसान-मानव मुख्य होता है। मन, वाणी, शरीर और इंद्रियों पर नियंत्रण रहे। संयम की साधना और साथ में सेवा की भावना रहे। इस अवसर पर श्रद्धाभिव्यक्ति करते हुए मुनि आकाश कुमार जी, साध्वी चरितार्थप्रभा जी, साध्वी कृष्णाकुमारी
जी, साध्वी सरसप्रभाजी, साध्वी सुलेखाश्री जी, साध्वी ऋजुप्रज्ञा जी, साध्वी जितेंद्रप्रभाजी, समणी सत्यप्रज्ञाजी, समणी अर्हतप्रज्ञा जी एवं मुमुक्षु तारा ने अपने विचार व्यक्त किए। सेवा केंद्र की साध्वियों ने गीत द्वारा भाव रखे। तत्पश्चात तुलसी मेडिकल एंड रिसर्च सेंटर के अध्यक्ष भिखमचंद पुगलिया, तेरापंथ युवक परिषद अध्यक्ष प्रदीप पुगलिया, तुलसीराम चोरड़िया, अमृतवाणी महामंत्री अशोक पारख, तेरापंथ महिला मंडल मंत्री मंजु झाबक, शांता पुगलिया, पानमल नाहटा, मधु झाबक आदि ने अपने विचार रखे। ज्ञानशाला के बच्चों ने प्रस्तुति दी। सरिता रामपुरिया आदि गाँव की बेटियों ने गीत का संगान किया। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।