सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन आत्मा के साथ आगे जाने वाले होते हैं: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल, छापर, 18 जुलाई, 2022
जिन शासन प्रहरी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल आगम वाणी का वाचन करते हुए फरमाया कि भगवती के 39वें सूत्र में प्रश्न किया गया है-भंते! ज्ञान होता है, वो ज्ञान इसी जन्म तक सीमित रहता है अथवा वह अगले जन्म में साथ जा सकता है अथवा दोनों जन्म में हो सकता है। प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि हे गौतम! कोई ज्ञान इस जन्म तक सीमित रहता है, आगे साथ में नहीं जाता। कोई ज्ञान अगले जन्म में भी साथ जा सकता है। कोई ज्ञान वर्तमान जन्म और भावि जन्म दोनों में विद्यमान रहता है। जैसे वर्तमान में कोई डॉक्टर या वकील आदि है, वो वापस अगले जन्म में वैसा नहीं रहेगा, कठिन है। ये ज्ञान यहीं था, हो सकता है, आगे न भी रहे।
ऐसा भी हो सकता है कि उदाहरण के लिए आदमी को पिछले जन्म का ज्ञान, जाति स्मृति ज्ञान हो जाता है। पिछला ज्ञान साथ में आया तभी जाति स्मृति ज्ञान हुआ, वरना पीछे का पीछे ही रह जाता है। जैसे मेघकुमार को प्रभु महावीर ने याद करवाया तो उसे जाति स्मृति ज्ञान हो गया था। वो पिछला ज्ञान साथ में लेकर आया था, तभी अभिव्यक्त हो गया। ज्ञान इस जन्म के बाद आगे के भव में और आगे के और भवों में भी जा सकता है। कई बार इस जीवन में भी ज्ञान स्थूल रूप में नहीं रहता है। विस्मृत हो सकता है। ज्ञान अपने आपमें एक पवित्र तत्त्व है। साथ में जाना नहीं जाना वह एक दार्शनिक, तात्त्विक, सैद्धांतिक बात हो जाती है। ज्ञान को जितना हो सके हमें पाने का प्रयास करना चाहिए। ज्ञान का क्षयोपशम जितना होता है, उस हिसाब से ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। चतुर्मास का समय है, ज्ञान के विकास का प्रयास हो। ध्यान साधना एवं तपस्या का भी विकास हो।
अगला प्रश्न किया गया है कि दर्शन है, सम्यक्त्व है, वह इस ही जन्म तक सीमित रहता है, क्या वो सम्यक्त्व दर्शन अगले जन्म में साथ जाता है, क्या दर्शन सम्यक्त्व वर्तमान और भावी दोनों जन्म में विद्यमान रहता है? उत्तर दिया गया-गौतम! हाँ ऐसा हो सकता है। क्षायिक सम्यक्त्व तो वापस जाने वाला नहीं है। जैसे राजा श्रेणिक का जीव तीनों जन्मों में सम्यक् ही रहेगा। वही बात दर्शन की है। ये भी आगे जा सकती है। ज्ञान और दर्शन है, वे आगे भी साथ में जा सकते हैं।
तीसरा प्रश्न किया गया है कि भगवन! चारित्र है, वह इस जन्म तक सीमित है आगे भी साथ में जाता है या उससे आगे भी जाता है। उत्तर दिया गया-हे गौतम! चारित्र इसी जन्म तक रह सकता है, वो आगे साथ जाता ही नहीं। साधु ने साधुपन लिया है, वह इसी जन्म तक है। कारण साधुपण का त्याग है। इस जीवन तक हमने नियम लिया है, आगे का हमने नियम लिया ही नहीं है।
जैसे कोई श्रावक विदेश जाकर दुकान किराए पर लेकर व्यापार करता है। बाद में वो अपने देश वापस जाना चाहता है, तो उसके कमाई तो साथ जाएगी पर जो दुकान किराए पर ली थी वो साथ नहीं जाएगी। वैसे ही साधु के चारित्र तो साथ नहीं जाएगा पर साधुपणे में जो संयम-निर्जरा की कमाई करेंगे, उसका जो लाभ है, वो हमारे साथ में जाएगा, इसलिए हम साधुपणा पालते हैं। अगले जन्म में साधुपणा नए सिरे से लिया जा सकता है। चारित्र पाल सकता है। चारित्र अलग प्रकार की चीज है, ज्ञान, दर्शन अलग प्रकार की चीज है। अगला प्रश्न किया गया-भंते! तप है, वो इस जीवन तक ही रहता है या आगे भी साथ में जा सकता है। गौतम! तपस्या इस जन्म तक ही साथ रहती है, अगले जन्म में साथ नहीं जाती है। तप का फल साथ में जा सकता है।
पाँचवा प्रश्न किया गया-भंते! संयम होता है, वो इसी जन्म तक होता है या आगे भी साथ मे जाता है? उत्तर दिया गया-गौतम! संयम इस जन्म तक ही सीमित रहता है, वो आगे साथ नहीं जाता। इस तरह पाँच प्रश्न पूछे गए हैं, इनमें ज्ञान-दर्शन तो साथ में जा सकते हैं, पर चारित्र, तप और संयम है, वो साथ आगे नहीं जा सकते, इसलिए आराधना करनी है, यहाँ ही कर लो। पूज्यप्रवर ने कालु यशोविलास का विवेचन करते हुए फरमाया कि बालक कालू का नाम राशी के हिसाब से शोभाचंद आया था पर माता-पिता ने उनका नाम कालु ही रखा कारण इनके परिवार में काल भैरव की ज्यादा मान्यता थी सो इष्ट देव के नाम से यह नाम रख दिया गया होगा। कालूगणी बचपन में श्याम वर्ण का था तो उस हिसाब से ही उनका नाम कालू रख दिया होगा। कालू नाम का भाग्य था जो ऐसे महापुरुष के साथ जुड़ गया।
आदमी के जीवन में कभी-कभी सुख में भी दुःख आ जाता है। वि0सं0 1934 में मूलचंद का देहावसान हो जाता है। छोगांजी पर भयंकर आपदा आ गई। छोगांजी अपने पुत्र की ओर विशेष जागरूक हो जाती है। बालक कालू भी माँ की आज्ञा का ध्यान रखते हैं। साध्वियों का संयोग मिला और माँ-बेटे में वैराग्य के भाव प्रबल हुए और मघवागणी ने दीक्षा की तिथि फरमा दी। साध्वीवर्या जी ने कहा कि पंच परमेष्ठि की आराधना का माध्यम है-नमस्कार महामंत्र! यह महासागर है। सामान्य आदमी इसकी गहराई नहीं नाप सकता। यह चौदह पूर्वों का सार है। यह मंत्राधिराज महामंत्र है। महामंत्र इसलिए है कि इसमें गुणों को नमस्कार किया गया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।