जन्म-मरण की परंपरा से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है मोक्ष की साधना: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जन्म-मरण की परंपरा से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है मोक्ष की साधना: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 22 जुलाई, 2022
साधना के श्लाका पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगम सरिता का रसपान कराते हुए फरमाया कि भगवती में चार प्रकार के संसार अवस्थान प्रज्ञप्त हैं। नैरियक, तिर्यंच, मनुष्य और देव संसार अवस्थान। संसार में दो प्रकार के जीव होते हैं-सिद्ध और संसारी। सिद्ध जीव तो अशरीरी है। संसारी यानी संसरण करने वाले जीव। जन्म-मृत्यु करने वाले। संसारी जीव चार गतियों में विभंग हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। संसारी जीव एक भव से दूसरे भव में जन्म लेते रहते हैं। यह जन्म-मरण का चक्र अनादि कालीन है। कई जीव तो ऐसे हैं, जो आज तक वनस्पतिकाय में ही हैं, बाहर निकले ही नहीं हैं। अनेक जीव ऐसे भी हैं जो इन चारों गतियों में जाते हैं।
एक दार्शनिक विचार मान्यता रही है, जो भगवान महावीर के समय भी थी-जो जीव जैसा है, वो जन्मांतर में भी वैसा ही रहता है। यह जन्मांतर सादृश्यवाद है। इस सिद्धांत के समर्थक आर्य सुधर्मा रहे हैं। उनके दीक्षा लेने से पहले की बात है, वो पहले पंडित थे। इस सिद्धांत के अनुसार गति और योनी में कोई परिवर्तन नहीं होता। हमारे यहाँ आगम वाङ्मय है, जैन दर्शन के संदर्भ में ध्यान दें तो दो शब्द आते हैं-कायस्थिति और भवस्थिति। कायस्थिति यानी एक ही काय या जाति में निरंतर जन्म लेना। एक जीवन की आयु स्थिति है, वो भव स्थिति कहलाती है। देवता आयुष्य संपन्नता के बाद वापस देवता नहीं बन सकते, नरक के नारकीय जीव भी नरक का आयुष्य पूरा करके वापस नरक में नहीं जा सकते हैं। उनके भव स्थिति ही होती है।
हमारे यहाँ बताया गया है कि एक मनुष्य है, वो सात-आठ भवों तक पुनः मनुष्य-मनुष्य बन सकता है। आर्य सुधर्मा का सिद्धांत आंशिक रूप में यहाँ फिट हो सकता है। मनुष्य और तिर्यंच पंचेंद्रिय कई जन्मों तक उसी गति में पैदा होता है, रहता है, पर हमेशा ही वैसा रहेगा, यह नियम जैन दर्शन में मान्य नहीं है। अनेकांत के आधार पर थोड़े अंशों में मान्य हो सकती है। चार गतियों का हमारा संसार है, जिसमें आत्मा जन्म-मृत्यु लेती रहती है, जब तक मोक्ष न हो जाए। अभव्य जीव तो हमेशा जन्म-मरण करते ही रहेंगे। उनको तो कभी मोक्ष मिलने वाला है ही नहीं। अभव्य जीव देवगति में जा सकते हैं, नौग्रैवेयक तक पैदा हो सकते हैं, साधु भी बन सकते हैं, पर वे मोक्ष में नहीं जा सकते। इसलिए निश्चय में नहीं कहा जा सकता कि कौन भव्य जीव है, कौन अभव्य जीव।
जीव भव्य है या अभव्य है, यह पाप कर्म के आधार पर नहीं है, यह तो अनादि-अनंत काल से पारिणामिक भाव है। इनको बनाने वाला कोई नहीं है। यह एक नियतिवाद का सा सिद्धांत है। अभव्य हमेशा अभव्य ही था, भव्य हमेशा भव्य ही था। कर्म या पुरुषार्थ के योग से नहीं हैं। यह जीव क्यों? यह अजीव क्यों? यह पारिणामिक भाव है, जो अनंत काल से चला आ रहा है। ये जो चार गतियाँ हैं, इनसे छुटकारा कैसे मिले। चारों में भी जब तक संसार में है, दुर्गति में तो न जाना पड़े। नरक-तिर्यंच में न जाना पड़े यह धातव्य है। नरक हमारी धरती से नीचे है, जो सात है। देवलोक अधिकांश हमारी धरती से ऊपर है, कुछ नीचे भी है। हमारी दुनिया में भी आसपास रहने वाले देव हो सकते हैं। स्थावर काय और त्रसकाय के जीव मनुष्य लोक में है, जो इन चारों गतियों में आत्माएँ भ्रमण करती हैं। इस भ्रमण से छुटकारा मिल जाए, यह चिंतन का महत्त्वपूर्ण विषय है। साधु जीवन लेना है, उसका भी मूल लक्ष्य यही है कि जन्म-मरण की परंपरा से हमारी आत्मा को छुटकारा मिले।
आत्मा स्वर्ग में जाए बड़ी बात नहीं, आत्मा मोक्ष में जाए तब खास बात है। स्वर्ग से तो वापस नीचे आना पड़ेगा ही। स्वर्ग-नरक हमारे संसार के ही स्थान हैं। हमारे जीवन में भी हम कुछ अंश में नारकीय जीवन का अनुभव कर लें, कभी स्वर्गतुल्य सुखों का अनुभव कर लें। साधु को तो इतना सुख मिलता है कि वो देवों से भी आगे बढ़ जाए। जो कषाय मुक्त हो गया है या कषायमंद है, तो वह सुखी रह सकता है। देवता भी भीतर से सुखी रह सकते हैं। सुख का मूल है कि चेतना कितनी निर्मल है। गृहस्थ जीवन में भी कई बड़े सुखी हो सकते हैं, साधु तो सुखी होते ही हैं। भीतर में शांति है, वो सुखी है। साधु तो नहीं, साधु तुल्य उनका जीवन होता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है। भगवती में चारों गतियों के बारे में बताया गया है ये चार अवस्थान काल है। इनमें आत्मा भ्रमण करती है। हमारा लक्ष्य यह हो कि चारों गतियों से हमको छुटकारा मिल जाए, परम मोक्ष स्थान प्राप्त हो जाए।
कालूयशोविलास का विवेचन करते हुए परमपूज्य ने फरमाया कि मघवागणी के बाद माणकगणी हमारे आचार्य होते हैं। मुनि कालू उनकी निश्रा में यात्रा कर रहे हैं। सरदारशहर, चुरू, बीदासर, चतुर्मास कर वि0सं0 1953 का चतुर्मास सुजानगढ़ में हो रहा है। वहाँ एक विशेष बीमारी से माणकगणी ग्रसित हो जाते हैं। शरीर कमजोर पड़ जाता है। कई संत मिलकर गुरुदेव से भावि व्याख्या के बारे में अर्ज करते हैं। एक दिन अचानक कार्तिक बदी 3 को उनका महाप्रयाण हो जाता है। संघ नाथविहीन हो जाता है। मुनि कालू को माणकगणी के सान्निध्य में लगभग साढ़े चार वर्ष रहने का मौका मिला।
पूज्यप्रवर द्वारा उपासक श्रेणी को दी गई विशेष प्रेरणा - आचार्यप्रवर ने उपासक श्रेणी को प्रेरणा देते हुए फरमाया कि उपासक शिविर में भी जो संभागी हैं। वे संसार में रहते हुए वेशभूषा से साधु लग रहे हैं, क्योंकि त्याग, संयम, नियम, तत्त्व का ज्ञान, इधर थोड़ा जीवन में कषाय की मंदता संतोष जीवन में। उपासक है, कुछ अंशों में साधु जैसे बन सकते हैं, और साथ में तत्त्व ज्ञान है और भी ज्ञान है, प्रेक्षाध्यान आदि जानते हैं, भाषण कला, गायन कला अच्छी है, तो लोगों को लाभ दे सकते हैं। लाभ देने वाले देते भी हैं। पर्युषण आदि और कितना लाभ बिना पर्युषण के भी क्लासें, शिविर आदि कराकर किसी रूप में लाभ दे सकते हैं।
धार्मिक दृष्टि से क्षेत्रीय सार-संभाल कर लेते हैं, तो थोड़ा अंशों में साधु का सा काम मानो कर देते हैं। यों उपासक श्रेणी विविध-उपयोग वाली भी कुछ अंशों में सिद्ध हो सकती है। उपासक श्रेणी के सदस्यों का जीवन है, वे परिवार में, समाज में, घर में रहते हुए भी आंशिक रूप में साधु जैसा जीवन जीने वाले हो सकते हैं, उनकी आत्मा का भी अच्छा उत्थान भी हो सकता है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि जीवन में सीधा चलना बड़ी बात नहीं है। हमें प्रतिस्त्रोतगामी बनना है।
मुमुक्षु दक्ष एवं मुमुक्षु अश्विन को दीक्षा का आदेश -संयमप्रदाता ने असीम कृपा बरसाते हुए मुमुक्षु अश्विन को आज ही मुमुक्षु श्रेणी में प्रवेश दिया। बाद में आज ही साधु प्रतिक्रमण का आदेश प्रदान कराते हुए दीक्षा छापर में प्रदान करने का आदेश फरमा दिया। साथ में मुमुक्षु दक्ष की दीक्षा भी छापर में देने की
फरमा दी।