व्यक्ति गृहस्थ जीवन में भी अनासक्त रहने का प्रयास करे: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 23 जुलाई, 2022
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी ने निर्ग्रन्थ प्रवचन की अमृत वर्षा करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया है कि भंते! क्या जीव अंतक्रिया करता है? भगवान ने फरमाया गौतम! कोई जीव अंतक्रिया करता है, कोई अंतक्रिया नहीं भी किया करता है। अंतक्रिया का मतलब है, सब दुःखों का अंत करना। यह अवस्था अंतिम है। जन्म और मृत्यु का पर्युवसान हो जाता है। कोई क्रिया नहीं होती है। आत्मा तेजस और कार्मण शरीर से मुक्त हो जाती है। यह अंत में होने वाली क्रिया होती है। संसार में दो प्रकार के जीव हैं। कुछ जीव ऐसे हैं, जो कभी न कभी मोक्ष में जाएँगे। कोई-कोई जीव ऐसे बहुत हैं जो अभव्य हैं, जो कभी मोक्ष में जाने लायक ही नहीं हैं। अंतक्रिया मोक्ष में जाने की सी क्रिया है।
सर्व दुःखमुक्ति की स्थिति अंतक्रिया से प्राप्त हो जाती है। संसार में प्राणी डरता भी है। प्राणी दुःख से डरता है। दुःख से आदमी बचने का प्रयास भी करता है। दुःख का समूल नाश हो जाए कि फिर कभी दुःख पाना भी न पड़े। जब तक आदमी के भीतर कषाय है, तृष्णा है, लोभ-विकार है, तब तक मानना चाहिए दुःख का मूल विद्यमान है। जब तक राग-द्वेष है, तब तक दुःख हो सकता है। भगवान ऋषभ ने गृहस्थ का जीवन भी जीया, अपने ढंग से सेवा भी की। प्रशिक्षण भी दिया। लोक उपकार का कर्तव्य समझकर सावद्य कार्यों का भी प्रशिक्षण दिया।
वे गृहस्थ अवस्था में थे तो जानते थे कि ये सावद्य काम है, पर उनमें लोकानुकंपा भी थी। उपासक है, जानते तो हैं कि गृहस्थ के सावद्य काम है, परंतु करना भी पड़ता है। जानना अलग बात है, त्यागना अलग बात है। सम्यक् ज्ञान तो हो गया। ये उनका कर्तव्य है, करना पड़ता है। सम्यक् ज्ञान होना भी बड़ी बात है। गृहस्थ जीवन में रहकर भी निर्लिप्त-अनासक्त रहें। परिवार में रहकर सारे कार्य करने पड़ते हैं। संसार में गृहस्थों के संबंध की दुनिया चलती है। साधु तो संबंधातीत होते हैं। श्रावक साधना में भी आगे बढे़। गृहस्थ आरंभजा, प्रतिरोधजा हिंसा तो नहीं छोड़ सकता पर संकल्पजा हिंसा से तो बचें। द्रव्य योग से सावद्य प्रवृत्ति हो सकती है, पर भाव शुद्ध है। तो आत्मा सिद्धत्व को प्राप्त हो जाती है। भगवान महावीर ने कितनी साधना कर केवलज्ञान प्राप्त किया था। अनंत जीवों ने अंतक्रिया कर ली। अंतक्रिया वर्तमान जीवन में तो होनी मुश्किल है। पर अंतक्रिया की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास किया जा सकता है।
साधु और श्रावक रत्नों की माला है। एक बड़ी है, एक छोटी है, पर है रत्नों की। जितना-जितना श्रावक के त्याग है, वो रत्नों की माला है, बाकी तो अव्रत है। गृहस्थ जीवन में भी अनासक्त रहने का प्रयास हो। साथ में धार्मिक साधना-चर्या चलती रहे। महामनीषी ने कालूयशोविलास का विवेचन करते हुए फरमाया कि पूज्य माणकगणी महाप्रयाण होने के बाद मुनि भीमजी जो रत्नाधिक थे को आज्ञा-आलोयणा, मुनि मगनलालजी को व्याख्यान आदि एवं मुनि कालू अंतरिम व्यवस्था संभालते हैं। चतुर्मास बाद सारा संघ लाडनूं में इकट्ठा होता है। वहाँ मुनि कालुजी बड़ा रेलमगरा को भावी आचार्य की घोषणा करने का दायित्व दिया जाता है। मुनि डालचंदजी की हमारे धर्मसंघ के सातवें आचार्य के रूप में घोषणा करवाई। जयपुर पंजाब नेशनल बैंक के उच्च अधिकारी पूज्यप्रवर के दर्शनार्थ पधारे। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि धर्म की शरण ही संसार में हमारा त्राण बनती है और कोई नहीं।