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संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
क्रिया-अक्रियावाद
(8) क्रियावादिषु चामीभ्य-स्तर्कणीयो विपर्यय:।
अप्येके गृहवासा: स्यु:, केचित् सुलभबोधिका:॥
आत्मवादियों की स्थिति उनसे नितांत विपरीत होती है। कुछ लोग गृहवासी होते हुए भी सुलभबोधि-धर्मोन्मुख होते हैं।
(9) दर्शनश्रावका: केचिद्, व्रतिनो नाम केचन।
अगारमावसन्तोऽपि, धर्माराधनतत्परा:॥
कुछ दर्शन-श्रावकसम्यक्दृष्टि होते हैं, कुछ व्रती होते हैं। वे घर में रहते हुए भी धर्म की आराधना करने में तत्पर रहते हैं।
इस प्रकार उपासक की चार कक्षाएँ होती हैं
(1) सुलभबोधि : धर्मप्रिय व्यक्ति। इनमें धर्म-कर्म संबंधी मान्यताओं का ज्ञान नहीं होता किंतु धर्म के प्रति आकर्षण होता है। वे धर्म का आचरण नहीं भी करते फिर भी उन्हें धर्म प्रिय लगता है।
(2) सम्यग्दृष्टि : जिनका दृष्टिकोण सम्यग् होता है और जो सत्यान्वेषण के लिए चल पड़े हैं उनको सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इसकी व्यावहारिक परिभाषा यह है कि जो जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों को जानते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं।
(3) व्रती : जो उपासक के बारह व्रतों का यथाशक्ति पालन करते हैं वैसे व्यक्ति।
(4) प्रतिमाधारी : प्रतिमा का अर्थ है विशेष अभिग्रह-प्रतिज्ञा। जो व्यक्ति उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, वे प्रतिमाधारी कहलाते हैं।
गृहस्थ की ये चार कक्षाएँ हैं। ये उत्तरोत्तर विकसित अवस्थाएँ हैं। उपासक पहले सुलभबोधि होता है। वह धर्म के संपर्क में आता है। कुछ जानता है और जब उसे दृढ़ निश्चय हो जाता है कि धर्म-कर्म, पुण्य-पाप, आत्मा आदि हैं, कर्म है, उनका फल है, तब वह सम्यग्दृष्टि की कक्षा में आता है। अब उसका मिथ्यात्व छूट जाता है और उसमें सत्य को जानने की उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है। सत्यान्वेषण के लिए वह चल पड़ता है। उसके मन में संयमित जीवन जीने की लालसा उत्पन्न होती है। गृह-त्यागने में वह अपने आपको असमर्थ पाता है, तब वह अपनी शक्ति के अनुसार कुछेक व्रतों को स्वीकार करता है। धीरे-धीरे व्रत ग्रहण कर विकास कर वह बारहव्रती श्रावक बन जाता है। वह तीसरी कक्षा में आ जाता है। अब उसका व्यवहार, वर्तन और आचरण बहुत संयमित और सीमित हो जाता है। उसका गमनागमन, उपभोग-परिभोग आदि सीमाबद्ध हो जाते हैं। उसकी आकांक्षाएँ अल्प हो जाती हैं और वह सांसारिक प्रवृत्तियों से अपने आपको बहुत विलग किए चलता है। जब उसके आसक्ति की मात्रा अत्यंत क्षीण हो जाती है तब वह चौथी कक्षा में प्रवेश करता है। वह ग्यारह प्रतिमाओं का वहन कर अपनी आत्मशक्ति को तोलता है। इन प्रतिमाओं के वहन-काल में श्रमणभूत की-सी चर्या का पालन करता है, कितु अपने परिवार से उसका प्रेम विच्छिन्न नहीं होता, अत: वह श्रमण नहीं कहलाता।
उपासक की ये चार कक्षाएँ हैं। इनमें धर्म का पूर्ण विकास होता है। जब वह उपासक गृहत्याग कर मुनि बनना चाहता है तब उसे पाँचवीं कक्षामुनि की कक्षा में प्रवेश करना होता है।