साँसों का इकतारा
(75)
प्यास हरो न हरो जलधर! पर दिखला दो परछाई।
ज्ञान भरो न भरो श्रुतधर पर दो श्रुत! की गहराई।।
धरती पर देखा हमने तुम पहुँचे नील गगन में
अम्बर में जब खोजा तो तुम जा पहुँचे कानन में
सघन वनों में खोज तुम्हारी सफल नहीं हो पाई
मिली नहीं अन्यत्र कहीं भी छवि ऐसी मनभायी
जन-जन के मानस में तुम रहते कैसे मायावी!
नए-नए धर रूप स्वयं को तुमने यहाँ छिपाया
तुम्हें देखने पल-पल मेरा अंतर्मन अकुलाया
सूख गया जब रिश्तों का रस तुमने सबको जोड़ा
सदियों से जो जमे हुए उन संस्कारों को तोड़ा
तब ही से तुम बने देव! हम सबके उत्तरदायी।।
सत्य साधना के बल से आलोक अनोखा पाया
जहाँ-जहाँ था तिमिर वहाँ तुमने उसको फैलाया
चाह तुम्हारी यह वसुधा अब स्वर्गतुल्य बन जाए
नैतिकता के गान धरा का कण-कण फिर से गाए
पाट चुके तुम साम्यभाव से लघु महान की खाई।।
रहे हमारे बीच सदा पर ज्ञेय नहीं बन पाए
उत्पथ में जब कदम बढ़े तो तुमने गीत सुनाए
सही रूप क्या देव! तुम्हारा एक बार दिखलाओ
हो पहचान तुम्हारी पूरी ऐसी कला सिखाओ
जान सकें हर समय तुम्हारी यह असीम ऊँचाई।।
(76)
भीड़ में रहकर केली मैं खड़ी हूँ
तुम मुझे कोई नया संसार दे दो
फूल-सा मौसम तुम्हें सौगात में दूँ
तुम मुझे खुशियों भरा त्योहार दे दो।।
चित्र अनगिन आज तक मैंने बनाए
इंद्रधनुषी रंग उनमें कब भरूँगी?
सामने मंजिल खड़ी पर सफर लंबा
प्रतीक्षा का यह समंदर कब तरूँगी
ज्योति का झरना बहाते तुम निरंतर
तिमिर के भय से अकारण क्यों डरूँगी?
मोह की बदली उमड़ती जा रही जो
पवन बन संहार उसका कब करूँगी?
थमा दो पतवार इन नाजुक करों में
फिर भले तूफान या मझधार दे दो।।
सत्य के साधक अलौकिक देवते! तुम
साधना-पथ में नया दीपक जलेगा
स्वप्न देखा आत्मदर्शन का कभी जो
वह तुम्हारे मार्गदर्शन में फलेगा
जिंदगी का पाठ हर तुमसे पढँ़ूगी
फिर न कोई प्रलोभन मुझको छलेगा
स्वयं की उपलब्धि में बाधक बना जो
वंचना का वह हिमालय खुद गलेगा
गीत निर्झर से अधिक मीठे तुम्हारे
स्वयं नहीं तो मौन की झंकार दे दो।।
साधना सार्थक बनेगी देव! कैसे
नियम उसके कुछ नए तुम ही बताओ
बंद कब से द्वार हैं इस चेतना के
दे सकूँ दस्तक कला ऐसी सिखाओ
अर्घ्य आस्था का समर्पित कर रही मैं
भीति मन की दूर अब तुम ही भगाओ
शिखर अब अध्यात्म का छूना मुझे है
चढूँ़ कैसे राह सीधी तुम दिखाओ
चित्त में हो वास अब स्थायी तुम्हारा
मुझे इस विश्वास का उपहार दे दो।।
(क्रमशः)