उपासना
(भाग - एक)
आचार्य महाश्रमण
आचार्य अभयदेव (नवांगी टीकाकार)
अभयदेव नाम के कई आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत आचार्य अभयदेव की प्रसिद्धि नवांगी टीकाकार के रूप में है। अभयदेव श्रमनिष्ठ आचार्य थे। संस्कृत भाषा पर उनका प्रभुत्व था। उनकी स्वाद-विजय की साधना दूसरों के लिए आदर्शभत थी।
आचार्य अभयदेव का जन्म वैश्य परिवार में वी0नि0 1542 (वि0 1072) में हुआ। इतिहास प्रसिद्ध मालव की धारानगरी उनकी जन्मभूमि थी। महीधर श्रेष्ठी के वे पुत्र थे। उनकी माता का नाम धनदेवी था। उनका अपना नाम अभयकुमार था। धारा में उस समय नरेश भोज का शासन था।
आचार्य अभयदेव का विवेक बचपन से ही अधिक प्रबुद्ध था। धार्मिक संस्कारों की निधि उन्हें अपने परिवार से सहज उपलब्ध थी। एक बार जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि का पदार्पण हुआ। पिता महीधर के साथ बालक अभयकुमार ने उनका प्रवचन सुना। वैराग्य का रंग बालक के मन पर चढ़ गया। माता-पिता की आज्ञा लेकर अभयकुमार ने जिनेश्वरसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। आगमों का बालमुनि ने गंभीरता से अध्ययन किया। ग्रहण और आसेवन रूप विविध शिक्षाओं को गुरुजनों से उपलब्ध कर महाक्रियानिष्ठ श्रमण अभयदेव शासनकाल को विकसित करने के लिए भास्करवत् तेजस्वी प्रतीत होने लगे। आचार्य वर्धमानसूरि के आदेश से जिनेश्वरसूरि ने उन्हें आचार्य पद से अलंकृत किया।
आचार्य अभयदेव सिद्धांतों के गंभीर ज्ञाता थे। आगमेतर विषयों का भी उन्हें विशद ज्ञान था। वर्धमानसूरि के स्वर्गवास के बाद का घटना प्रसंग हैµ
प्रत्यपद्रपुर में रात्रि के समय आचार्य अभयदेव ध्यान में बैठे थे। टीका रचना की अंतःप्रेरणा उनके मन में उत्पन्न हुई। प्रभावक चरित्र आदि ग्रंथों के अनुसार यह प्रेरणा शासन देवी की थी। निशीथकाल में ध्यानस्थ अभयदेव के सामने देवी प्रकट होकर बोलीµ‘मुने! आचार्य शीलांक एवं कोट्याचार्य द्वारा विरचित टीका साहित्य में आचारांग और सूत्रकृतांग आगम की टीकाएँ सुरक्षित हैं। अवशिष्ट टीकाएँ काल के दुष्प्रभाव से लुप्त हो गईं। अतः इस क्षतिपूर्ति के लिए संघ-हितार्थ आप प्रयत्नशील बनें एवं टीका-रचना का कार्य प्रारंभ करें।
अंतर्मुखी आचार्य अभयदेव बोलेµ‘देवी! मेरे जैसे जड़मति व्यक्ति द्वारा सुधर्मा स्वामी कृत आगमों को पूर्णतः समझना भी कठिन है। अज्ञानवश कहीं उत्सूत्र की प्ररूपणा हो जाने पर यह कार्य उत्कृष्ट कर्मबंधन का और अनंत संसार की वृद्धि का निमित्त बन सकता है। शासन देवी के वचनों का उल्लंघन करना भी उचित नहीं है। अतः तुम्हारे द्वारा प्राप्त संकेत पर किंकर्तव्यविमूढ़ जैसी स्थिति मेरे में उत्पन्न हो गई है।’
आचार्य अभयदेव के असंतुलित मन को समाधान प्रदान करती हुई देवी ने निवेदन कियाµ‘मनीषी-मान्य! सिद्धांतों के समुचित अर्थ को ग्रहण करने में सर्वथा योग्य समझकर ही मैंने आपसे इस महत्त्वपूर्ण कार्य की प्रार्थना की है, आगम पाठों की व्याख्या में जहाँ भी आपको संदेह हो उस समय मेरा स्मरण कर लेना। मैं सीमंधर स्वामी से पूछकर आपके प्रश्नों को समाहित करने का प्रयत्न करूँगी।’
आचार्य अभयदेव को शासनदेवी के वचनों से संतोष मिला। आगम जैसे महान् कार्य में तपोबल की शक्ति आवश्यक है। यह सोच नैरन्तरिक आचाम्ल तप (आयंबिल) के साथ उन्होंने टीका-रचना का कार्य प्रारंभ किया। एकनिष्ठ से वे अपने कार्य में लगे रहें। अपनी श्रमपरायण वृत्ति के कारण वे नौ आगमों पर टीका ग्रंथों की रचना में सफल हुए। टीका-रचना करने के बाद आचार्य अभयदेव का धवलकपुर में पदार्पण हुआ।
आत्मबल अनंत होता है, पर शरीर की शक्ति सीमित होती है। नैरन्तरिक आचाम्ल तप और रात्रि-जागरण से उन्हें कुष्ठ हो गया। विरोधीजनों में अपवाद प्रसारित हुआµकुष्ठ रोग उत्सूत्र की प्ररूपणा का प्रतिफल है। शासनदेवी रुष्ट होकर उन्हें दंड दे रही है।
लोकापवाद सुनकर आचार्य अभयदेव का विश्वास भी डोला। अंतर्चिंतन चला। रात्रि के समय उन्होंने धरणेंद्र का स्मरण किया। शासन हितैषीधरणेंद्र ने निद्रालीन उनके शरीर को चाट कर स्वस्थ बना दिया।
(क्रमशः)