उपासना
(भाग - एक)
आचार्य अभयदेव (नवांगी टीकाकार)
आचार्य अभयदेव बोले-‘श्रावको! चिंता मत करो। धर्म के प्रताप से सब ठीक होगा।’ आचार्य अभयदेव के इन शब्दों से सबको संतोष मिला। दूसरे दिन सुरक्षित माल मिल जाने की सूचना पाकर सबको अत्यधिक प्रसन्नता हुई। आचार्य अभयदेव के पास जाकर समवेत स्वर में श्रावकों ने निवेदन किया-‘इस माल की बिक्री से हमें जो लाभ होगा, उसका अर्द्धांश टीका-साहित्य के लेखन-कार्य में व्यय करेंगे।’
इन श्रावकों द्वारा प्रदत्त धनराशि से टीका-साहित्य की अनेक प्रतिलिपियाँ निर्मित हुईं। तत्कालीन प्रमुख आचार्यों के पास कई स्थानों पर उनका अीका साहित्य पहुँचाया गया। आचार्य अभयदेव की सर्वत्र प्रसिद्ध हुई। लोग कहने लगे-‘सिद्धांत पारगामी, आगम साहित्य के निष्णात विद्वान् आचार्य अभयदेव हैं।’
कार्यकाल की कठिनाइयाँ
आगमों पर टीका लिखते समय आचार्य अभयदेवसूरि के सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं। स्थानांग वृत्ति की प्रशस्ति में उन्होंने कार्यकाल की कठिनाइयों का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है-
सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः।
सर्वस्वपरशास्त्राणा मट्टष्टेरस्मृतेश्च मे।।
वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः।
सूत्राणामतिगाम्भीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित्र्।।
इस पद्य के वर्णनानुसार इस समय अभयदेवसूरि के सामने सत्संप्रदाय का अभाव था अर्थात् अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-परंपरा उन्हें प्राप्त नहीं थी। अर्थ की यथार्थ आलोचनात्मक स्थितियाँ और तर्कपूर्ण व्याख्या भी नहीं थी। आगमों की अध्यापन-पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न थीं। आगमों की प्रतिलिपियों में अनेक गलतियाँ थीं। शुद्ध प्रति खोजने पर भी उपलब्ध नहीं हो पाती थी। आगम सूत्रात्मक होने के कारण गंभीर थे। अर्थविषयक नाना प्रकार की धारणाएँ थीं।
सिद्धांतों के समुचित अर्थ प्राप्ति हेतु इन कठिनाइयों के होते हुए भी अभयदेवसूरि के गतिमान चरण आगे से आगे बढ़ते रहे। मार्ग बनता गया।
द्रोणाचार्य का सहयोग
आचार्य अभयदेव को टीका-रचना के कार्य में द्रोणाचार्य का महान् सहयोग प्राप्त हुआ था। द्रोणाचार्य चैत्यवासी आचार्य थे। वे बहुश्रुत थे, आगमधर थे एवं स्व-पर-दर्शन के विशिष्ट ज्ञाता थे। द्रोणाचार्य की ओघ निर्युक्ति टीका के अतिरिक्त उनकी अपनी कोई टीका उपलब्ध नहीं है।
अभयदेवसूरि सुविहितमार्गी थे। द्रोणाचार्य का संबंध चैत्यवासी परंपरा से होते हुए भी अभयदेव सूरि के प्रति उनका विशेष सद्भाव था। अभयदेवसूरि भी द्रोणाचार्य के आगम ज्ञान से विशेष प्रभावित थे। द्रोणाचार्य जब अपने शिष्यों को आगम वाचना प्रदान करते उस समय स्वयं अभयदेवसूरि उनसे आगम वाचना लेने जाते। गण-भिन्नता ज्ञान-ग्रहण में बाधक नहीं बनी थी।
अभयदेवसूरि को द्रोणाचार्य खड़े होकर सम्मान देते और उनको अपने पास आसन प्रदान करते। द्रोणाचार्य का अभयदेवसूरि के प्रति आदरभाव द्रोणाचार्य के शिष्यों में ईर्ष्या का विषय बन गया था। शिष्य कुपित होकर कभी-कभी परस्पर में चर्चा करते-
इस अभयदेव में हमारे से अधिक कौन सी विशेषता है जिसके कारण हमारे प्रमुख नायक द्रोणाचार्य खड़े होकर इस प्रकार समादर प्रदान करते हैं।
शिष्यों के मन में उठने वाले प्रश्नों को द्रोणाचार्य मनोवैज्ञानिक ढंग से समाहित करते और उनके सामने आचार्य अभयदेव के गुणों का एवं विशेषताओं का खुले हृदय से व्याख्यान करते।
टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि सोलह वर्ष की उम्र में आचार्य बने। उन्होंने इक्यावन वर्ष तक धर्मसंघ के कुशल संचालन का अपना दायित्व निभाया और जैनशासन की महनीय सेवाएँ कीं।
प्रभावक चरित्र के अनुसार अभयदेव का स्वर्गवास पाटण में हुआ था। पाटण में उस समय नरेश कर्णराज का राज्य था।
(क्रमशः)