संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(13) पदार्थज्ञानमात्रेण, न ज्ञानं सम्यगुच्यते।
आत्मलीनस्वभावं यत्, तज्ज्ञानं सम्यगुच्यते।।
पदार्थों को जान लेने मात्र से ज्ञान को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जिस ज्ञान का स्वभाव आत्मा में लीन होता है, वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
विभिन्न व्यक्तियों का विभाग किया जाए तो वे दो रूपों में विभक्त हो सकते हैं-बौद्धिक-ज्ञानी और आत्म-ज्ञानी। बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से एक साधक दुर्बल हो सकता है, और आत्मज्ञान की अपेक्षा से एक बुद्धिजीवी भी। बौद्धिक ज्ञान आत्मा की दृष्टि में हेय है। वह व्यक्ति को छोटे-छोटे घरौंदों में बाँधता है; जबकि आत्मज्ञान मुक्त करता है। बौद्धिक ज्ञान एक प्रकार का आवरण है, जो आत्मा का स्पष्ट या अस्पष्ट दर्शन भी नहीं करा सकता। अज्ञान की कारा से मुक्त जहोने पर शिष्य गा उठता है-मैं इसलिए गुरु को नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने अज्ञान-तिमिर से अंधे व्यक्तियों की आँखों में ज्ञान-रूपी अंजन आंज कर दिव्य चक्षु प्रदान किए हैं।
जो ज्ञान अज्ञान को नष्ट नहीं करता वह ज्ञान ही नहीं है। दवा रोग-नाश के लिए दी जाती है। यदि वह रोग को बढ़ाएँ तो उसका क्या प्रयोजन है? इसी प्रकार यदि ज्ञान मुक्त-स्वतंत्र नहीं करता है तो वह ज्ञान भी क्या है? ‘सा विद्या या विमुच्यते’-विद्या वही है जो व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करे। इसलिए वह ज्ञान सम्यग् ज्ञान की कोटि में आता है, जो आत्मलीन करो। इसलिए वह ज्ञान सम्यग् ज्ञान की कोटि में आता है, जो आत्मलीन होकर आत्मा को बंधन-मुक्त करता है।

(14) अनंतधर्मकं द्रव्यं, ज्ञेयं धर्मावुभौ स्फुटम्।
सामान्य×च विशेषश्च, द्रव्यं तदुभयात्मकम्।।
अनंत धर्मात्मक-अनंत विरोधी युगलात्मक द्रव्य ज्ञेय होता है। अनंत धर्मों में दो धर्म प्रमुख हैं-सामान्य और विशेष। द्रव्य केवल सामान्यात्मक अथवा केवल विशेषात्मक नहीं होता। वह उभयात्मक-सामान्य-विशेषात्मक होता है।

(15) सामान्यग्राहकं ज्ञानं, संग्रहो नय इष्यते।
विशेषगाहकं ज्ञानं, व्यवहारनयो मतः।।
जो सामान्य को ग्रहण करता है, जानता है, वह संग्रह नय कहलाता है। जो विशेष को ग्रहण करता है, जानता है, वह व्यवहार नय कहलाता है।

(16) उभयग्राहकं ज्ञानं, नैगमो नय इष्यते।
सामान्य×च विशेषश्च, यतो भिन्नो न सर्वथा।।
जो सामान्य और विशेष-दोनों को ग्रहण करता है, जानता है, वह नैगम नय है। इसका तात्पर्य है-सामान्य और विशेष सर्वथा भिन्न नहीं है। (क्रमशः)