सामायिक चारित्र केवल साधु के हो सकता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 27 जुलाई, 2021
जिन शासन के प्रहरी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने फरमाया कि ठाणं आगम का आठवाँ स्थान है। आठ की संख्या वाली बातें इसमें बताई गई हैं। आठवें स्थान के 107वें सूत्र में संयम के आठ प्रकार बताए गए हैं।
संयम से तात्पर्य हो जाता हैचारित्र। यह चारित्र पूर्णरूपेण केवल साधु के ही हो सकता है। श्रावक में देश-चारित्र होता है, हो सकता है। सर्व चारित्र साधु के ही हो सकता है। पच्चीस बोल में पच्चीसवाँ बोल हैंचारित्र पाँच। ये पाँचों चारित्र साधु में ही हो सकते हैं।
श्रावक के सामायिक तो हो सकती है, पर सामायिक चारित्र नहीं हो सकता। उसके कारण हैं कि श्रावक की सामायिक एक मुहूर्त काल की, सामायिक चारित्र में नवीनता होती है। पाँच चारित्र में नवीनता तो हो सकती है। दीक्षा लेते ही सामायिक चारित्र आता है। वह सामायिक चारित्र 7 दिन बाद या 4 मास बाद या छ: मास के बाद जो बड़ी दीक्षा होती है, तब उसमें छेदोपस्थापनीय चारित्र आ जाता है।
विकास में तो साधुत्व रह सकता है, पर ऐसा नहीं कि कोई छठे से ह्रास में गुणस्थान की दृष्टि से नीचे आ जाए। गृहस्थ की सामायिक कम काल की है, साधु के सामायिक चारित्र जीवन भर के लिए होते हैं। साधु के सर्व सावद्य योग का त्याग है वो श्रावक के नहीं होता। साधु के सर्वथा तीन करण तीन योग से सावद्य-योग का त्याग होता है। श्रावक के सर्व सावद्य-योग का त्याग नहीं होता।
श्रावक की सामायिक 6 कोटी, 8 कोटी और 9 कोटी की हो सकती है। दो करण तीन योग से त्याग 6 कोटी का त्याग होता है। 8 कोटी में दो कोटी और जुड़ जाती हैं अनुमोदु नहीं वचन से, अनुमोदु नहीं काया से। नौ कोटी में तीन करण, तीन योग से त्याग हो जाता है।
एक मुहूर्त में श्रावक के प्रत्यक्ष रूप में तो त्याग है, पर परोक्ष रूप से उसके सावद्य क्रिया चालु रह सकती है। निर्मल त्याग साधु के ही हो सकता है। इसलिए सामायिक चारित्र साधु के ही हो सकता है। श्रावक के देशव्रती त्याग होता है, सर्व विरति नहीं होती।
आज का जो व्याख्येय हैसंयम यानी चारित्र। उसके आठ प्रकार बताए गए हैं(1) प्रथम समय सूक्ष्म संपराय सराग संयम। चारित्र दो प्रकार का होता है। सराग संयम और वीतराग संयम। छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक का संयम सराग संयम है। ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान का जो संयम है, वह वीतराग संयम है।
दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म संपराय होता है। सूक्ष्म लोभ कषाय का थोड़ा सा अंश विद्यमान रहता है। यह दसवें गुणस्थान के पहले समय का सूक्ष्म संपराय चारित्र के भावों में आता है। वह प्रथम समय का सूक्ष्म संपराय चारित्र होता है। दसवें गुणस्थान के पहले समय बीतने के बाद जो संयम आता है वह दूसरा अप्रथम समय सूक्ष्म संपराय सराग संयम है।
तीसरा प्रकार हैप्रथम समय बादर संपराय सराग संयम। छठे गुणस्थान से नौवें गुणस्थान का जो संयम है, वो बादर संपराय सराग संयम है। इस संयम का जो पहला समय है, वो है प्रथम समय बादर संपराय सराग संयम है। चौथा हैअप्रथम समय बादर संपराय सराग संयम। प्रथम समय के बाद के जो समय है, वो चौथे भेद में आ जाएँगे।
पाँचवाँ प्रकार हैप्रथम समय उपशांत कषाय वीतराग संयम। ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशांत मोह गुणस्थान है। उसका पहला समय यह पाँचवाँ प्रकार है। छठा प्रकार हैअप्रथम समय उपशांत कषाय वीतराग संयम। यह ग्यारहवें गुणस्थान के पहले समय को छोड़कर शेष समय का होता है।
सातवाँ प्रकार हैप्रथम समय क्षीण कषाय वीतराग संयम। बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान का प्रथम समय यह प्रकार हो जाता है। इनके शेष समय आठवें प्रकार के अप्रथम समय क्षीण कषाय वीतराग संयम है। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि पहला, तीसरा, पाँचवाँ और सातवाँ प्रकार ये तो एक-एक समय वाले संयम के प्रकार हैं। बाकी चार प्रकार अनेक समय वाले संयम के प्रकार हो जाते हैं।
इन आठों में पाँचों चारित्र समाविष्ट किए जा सकते हैं। वीतराग संयम में आयुष्य का बंध ही नहीं होता है। आयुष्य का बंध सराग अवस्था में ही हो सकता है। साधु के छठे और सातवें गुणस्थान में ही आयुष्य का बंध हो सकता है। आयुष्य का बंध की शुरुआत छठे गुणस्थान में ही होती है। सातवें में वह समाप्त हो सकता है।
वीतराग संयम वाले का ग्यारहवें गुणस्थान में आयुष्य पूरा तो भले हो जाए पर बंध नहीं होता। पहले आयुष्य का बंध हो चुका होगा। ये संयम के कई नियम हैं।
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