संतों की पर्युपासना होती है लाभकारी: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संतों की पर्युपासना होती है लाभकारी: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 4 सितंबर, 2022
जैन जगत के उज्ज्वल नक्षत्र आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि जो श्रमण महान साधु है, अहिंसक है, तपस्वी है, ऐसे साधु की कोई पर्युपासना करता है, उसके आसपास बैठता है, भक्ति करता है, उसे सम्मान भाव वंदना करता है, उससे क्या लाभ प्राप्त होता है। उत्तर दिया गया कि श्रमण महान की पर्युपासना से कई लाभ होते है। साधु के मुख से कुछ सुनने को मिल सकता है। कभी श्रवण का मौका न भी मिले तो भी त्यागी साधु की उपासना तो हो गई। गुरु का मौन भी अपने आपमें व्याख्यान हो सकता है। उससे ज्ञान मिल सकता है।
अगला प्रश्न किया गया कि भंते! साधु पर्युपासना करते सुनने को मिल जाए तो सुनने का क्या फल हो सकता है? उत्तर दिया गया कि श्रवण का फल है ज्ञान। सुनने से ज्ञान मिलता है। दसवेंआलियं कहा गया है कि सुनने से व्यक्ति कल्याण और पाप को जान लेता है। दोनों को जानकर जो श्रेय हो उसका समाचरण करना चाहिए। प्रश्न किया गया भंते! ज्ञान किस फल वाला होता है? ज्ञान का फल है, विज्ञान। श्रवण अध्यात्म-धर्म होता है। ज्ञान श्रुत ज्ञान होता है। विज्ञान यानी एक विशेष ज्ञान। ज्ञान के बाद विवेक हो जाता है। हेय और उपादेय को ग्रहण कर लेना विज्ञान है। विवेक चेतना विज्ञान है। विज्ञान से क्या फल होता है। विज्ञान का फल हैµप्रत्याख्यान। आदमी हेय को छोड़ता भी है, त्याग भी करता है।
भंते! प्रत्याख्यान का क्या फल है? प्रत्याख्यान करने से संयम हो जाता है। इंद्रिय और मन का संयम हो जाता है। भंते! संयम का क्या फल होता है? संयम से अनाश्रव फल होता है। कर्म का मार्ग बंध हो जाएगा, संवर हो जाएगा। भंते! अनाश्रव होने से क्या फल होता है? अनाश्रव का फल हैµतप। जैसे संयमी साधु है, वो जो भी करेगा, तप हो जाएगा। भंते! तप का क्या फल होता है? तप का फल हैµव्यवदान। निर्जरा होगी।
भंते! निर्जरा का क्या फल होगा? निर्जरा होते-होते अक्रिया, मन, वचन, काय की सारी क्रिया समाप्त हो जाएगी। शुभ क्रिया भी नहीं होगी। चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में पूर्णतया अक्रिया होती है। भंते! अक्रिया का क्या परिणाम आता है। अक्रिया का फल अंतिम फल है, सिद्धि, मोक्ष की प्राप्ति। यह एक शंृखलाबद्ध परिणामों की बात बताई गई है। कुल एक से एक निकलते दस फल हो जाते हैं। संत-साहित्य में सत्संग शब्द आता है कि सत्संगत का कितना महत्त्व है। सत्संग संतों की पर्युपासना है। उससे अंतिम फल तक का लाभ मिल सकता है। जहाँ भी संतों की पर्युपासना का प्रयास किया जाए तो बहुत अच्छे लाभ मिल सकते हैं। हमारे धर्मसंघ में तो कितने लोग पर्युपासना में रहते हैं। चातुर्मास में कितने लोग आते हैं। चातुर्मास में पर्युपासना अच्छी हो जाती है।
कालूयशोविलास की विवेचना करते हुए फरमाया कि पूज्यकालूगणी हरियाणा की यात्रा कर राजस्थान नोहर पधार गए हैं। डालगणी के पट्टधर वि0सं0 1977 का मर्यादा महोत्सव की कृपा सरदारशहर पर करवा रहे हैं। 77 संत 178 साध्वियों का मेला हुआ। 23 रात विराजना हुआ। हरियाणा यात्रा में कालूगणी के घुटनों की तकलीफ हो गई थी, ईलाज स्थायी नहीं हुआ। रतनगढ़ में वेदना ठीक हो गई। वहाँ से बीदासर में पधारते हैं। वहाँ साधु-साध्वियों में तपस्या हुई है। मर्यादा महोत्सव की कृपा लाडनूं हो रही है। वहाँ से सुजानगढ़ पधारते हैं। यात्रा चल रही है। बीदासर, श्रीडूंगरगढ़ पधारते हैं। बीकानेर के लोग अर्ज करते हैं कि आप बीदायत को क्यों भूल गए, वहाँ भी पधारो। बीदायत में तो कितनी कृपा हो रही है। गुरुदेव बीकानेर तरफ पधारते हैं। गंगाशहर में तो गंगा आ गई। उस चोखले को परसते हैं। लोगों को लाभ मिल रहा है।

दुख का कारण है प्रमाद: साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा

साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि प्राणियों को दुःख का भय है। इस दुनिया में हमें अनेक जगह दुःख ही दुःख दिखाई दे रहा है। दुःख के हेतु भी हैं। दुःख में भगवान याद आते हैं। दुःख का कारण प्रमाद है। अप्रमाद द्वारा दुःख से दूर हो सकते हो। हमें अप्रमाद की स्थिति में रहना चाहिए। जो जागरूक रहता है, वह प्राप्त कर सकता है। जो जागृत रहता है, वह ज्ञान प्राप्त करता है। पूज्यप्रवर की सन्निधि में अनेक क्षेत्रों के संघबद्ध श्रावक आए हुए हैं। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। प्रदीप दुगड़ ने 17 की, विनोद नौलखा ने 19 की तथा पूजा लोढ़ा ने 24 की तपस्या का आचार्यश्री से प्रत्याख्यान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।