सर्व साधु धर्म में ध्यान का है शीर्ष स्थान: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 30 अगस्त, 2022
पर्वाधिराज पर्युषण का सातवाँ दिन ध्यान दिवस के रूप में समायोजित हुआ। स्थिर योगी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने परमप्रभु महावीर की अध्यात्म यात्रा का विवेचन करते हुए फरमाया कि भगवान महावीर के सताईस भव विवेचन की शंृखला चल रही है। पच्चीसवाँ भव में नंदन राज ने राज्य का भार संभाला तो आत्मा के दायित्व को संभालने के लिए आगे बढ़ गए। मुनि दीक्षा स्वीकार कर राजर्षि नंदन बन गए हैं। एक लाख वर्ष का संयम पर्याय रहा। राजर्षि नंदन ने ग्यारह अंगों का शास्त्राभ्यास किया। आचार्य भिक्षु की परंपरा में बत्तीस आगम सम्मत है ये मान्यता है। निरंतर मासखमण की तपस्या करते हुए ग्यारह लाख साठ हजार मासखमण कर लिए। इस जन्म में उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया था। अर्हत् भक्ति और कठोर तपस्या उसका निमित्त बने। पारणे के दिन 3333 ही आए। अंत में संथारा करके शरीर त्याग दिया।
राजर्षि नंदन की आत्मा ऊर्ध्वारोहण कर छब्बीसवें भव में दसवें देवलोक में उत्पन्न हुए हैं। देवगति का आयुष्य पूर्ण कर सत्ताईस भवों के क्रम में अंतिम भव महावीर का होना है। वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अंत में जब 75 वर्ष साढे आठ माह शेष रहे थे, तब आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र की वैशाली नगरी के पश्चिम में ब्राह्मण कुंड ग्राम, क्षत्रियकुंड ग्राम, वाणिज्य ग्राम, कुर्मार ग्राम, कौल्लाग सन्निवेश आदि नगर हैं, मानो वैशाली नगरी को तीर्थंकरगत कर रहे हैं। ब्राह्मण कुंड ग्राम के प्रमुख ऋषभदत्त- देवानंदा ब्राह्मण परंपरा से थे। जालब्धरीय गौत्रा देवानंदा की कुक्षी में सिंह उत्थव की भाँति गर्भ रूप में नयसार की आत्मा गर्भस्थ हो जाती है। ऋषभदत्त और देवानंदा पार्श्व के अनुयायी होते हैं। परमप्रभु महावीर के पाँच प्रसंग ऐसे हैं, जो हस्तोत्तरा नक्षत्र-उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग में हुए हैं।
भगवान की आत्मा जब दसवें देवलोक से च्युत हुई गर्भ, जन्म, गर्भ संहरण एवं मुनि दीक्षा व केवलज्ञान केवलदर्शन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में ही हुए थे। देवानंदा की कुक्षी में आने के बाद गर्भ संहरण हुआ। देवता के द्वारा इंद्र के कहने पर ब्राह्मणी की कुक्षी से बड़ी सावधानी से उठाया जाता है। वही वैशाली के क्षत्रीय कुंड ग्राम में क्षत्रियाणी त्रिशला राजा सिद्धार्थ की पटरानी के गर्भ में महावीर के छोटे से गर्भ को स्थापित किया गया। उस समय त्रिशला ने चौदह महास्वप्न देखे। राजा सिद्धार्थ को बताया कि मैंने चौदह महास्वप्न दिखे हैं। मैं तो आनंद विभोर हो गई। स्वप्न शास्त्र पाठकों ने बताया कि यह जातक चतुरंग चक्रवर्ती राज्यपति बनेगा। अथवा धार्मिक जगत में त्रैलोक्य नायक, धर्मचक्रवर्ती बन जाएगा।
सिद्धार्थ बहुत खुश हुए कि एक महान आत्मा हमारे कुल में आई है। त्रिशला सावधानी से गर्भ का संरक्षण कर रही है। धीरे-धीरे गर्भ विकसित हो रहा है। शिशु तो अतिन्द्रिय ज्ञानी व्यक्ति है। शिशु ने सोचा मेरे हलन-चलन में माँ के कष्ट जो रहा है। शिशु ने स्पंदन बंद कर दिया तो त्रिशला चिंतित हुई। दुखी हो आर्तध्यान में चली गई। लगता है, बच्चा मर गया है। मैं तो अभागिनी हूँ। उत्सव बंद हो गए। कुछ समय बच्चे ने ज्ञान लगाया कि माँ तो अब दुखी हो गई है। शिशु ने वापस स्पंदन शुरू किया तो माँ खुश हुई कि ना-ना मेरा गर्भ सुरक्षित है। पुनः उत्सव का
माहौल शुरू हो गया। यह एक विरल प्रसंग है। शिशु ने सोचा कि थोड़ी देर स्पंदन बंद किया और माँ का हाल बेहाल हो गया। अगर माता-पिता की विद्यमानता में मैं
साधु बनूँगा तो उनको कितना कष्ट होगा। उन्होंने गर्भ में ही प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक माता-पिता संसार में विद्यमान रहेंगे मैं साधु नहीं बनूँगा। सवा नव मास का गर्भकाल संपन्नता की ओर आता है। एक महापुरुष बाहर प्रकट हो रहा है। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी, मध्य रात्रि का समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग ईसापूर्व 599 विक्रम पूर्व 522 में महाक्षत्रिपाणी त्रिशला एक महान शिशु को प्रसूत करती है। पूरे राज्य में खुशियों का माहौल हो गया। बच्चा बड़ा हो रहा है। बारह दिन बाद चिंतन हुआ कि बच्चे का नामकरण शिशु का नाम रखा गयाµवर्धमान।
आज पर्युषण का सातवाँ दिन ध्यान दिवस रूप में स्थापित है। प्रेक्षाध्यान जो कराया जाता है। शरीर में सिर का जो महत्त्व है, वैसे ही जीवन में ध्यान का महत्त्व है। पूज्यप्रवर ने ध्यान का प्रयोग करवाया। कल हमारा महापर्व संवत्सरी है। तप का उपहार धर्म के महापर्व को देना चाहिए। अच्छी तरह से संवत्सरी की आराधना करनी है। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि जहाँ-जहाँ हमारे चक्र हैं, वहाँ चेतना की सघनता है। वहाँ का ध्यान करने से शक्ति जागृत होती है। इन प्रयोगों से हमारा रूपांतरण होता है। हमारी आदतें और स्वभाव बदल रहे हैं।
मुख्य मुनिप्रवर ने कहा कि ब्रह्मचर्य को भगवान की उपमा से उपमित किया गया है। ब्रह्मचर्य सर्व तपों में उत्तम है। गीत का सुमधुर संगान किया। साध्वीवर्या जी ने कहा कि ब्रह्मचर्य को असिधारा व्रत कहा गया है। इसकी साधना करना बहुत दुष्कर बताया गया है, जो महादुष्कर साधना करता है, वह व्यक्ति अपनी आत्मा में लीन बनता है। मुनि योगेश कुमार जी, मुनि नयकुमार जी, मुनि केशी कुमार जी, साध्वी -------- जी की प्रेरणादायी अभिव्यक्ति हुई।
शरीर में स्थान शीर्ष अर्थात् मस्तक का होता है, वृक्ष में जो स्थान मूल का होता है उसी प्रकार सर्व साधु धर्म में ध्यान का महत्त्वपमर्ण स्थान होता है। इस दौरान आचार्यश्री ने प्रेक्षाध्यान के कई प्रयोग चतुर्विध धर्मसंघ को कराए। इस अवसर पर पूरा प्रवचन पंडाल ध्यानमग्न नजर आ रहा था। आचार्यश्री ने आगे संवत्सरी महापर्व को अच्छे ढंग से मनाने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि यह वर्ष में आने वाला अति महत्त्वपूर्ण दिवस है। जहाँ तक संभव हो, संवत्सरी का उपवास होना चाहिए। साधुओं के तो चौविहार उपवास होता ही है, गृहस्थ तिविहार उपवास करने का प्रयास करें। आचार्यश्री की संवत्सरी उपवास के दौरान पौषध आदि के संदर्भ में अनेक नियमों को विस्तार से बताते हुए इस महापर्व को अच्छे ढंग से मनाने की प्रेरणा प्रदान की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।