आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

साधना की सीधी पृष्ठभूमि: आहार-विवेक

तीसरी बात है-परिभोगैषणा। भोजन करते समय जिन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है, वह इस एषणा में अंतर्गर्भित है। शास्त्रों ने बताया है कि मुनि को न तो जल्दी-जल्दी आहार करना चाहिए और न धीरे-धीरे स्वाद लेकर खाना चाहिए। जैसे साँप बिल में घुसते समय बिलकुल सीधा हो जाता है, वैसे ही मनोज्ञ-अमनोज्ञ, स्वादिष्ट-अस्वादिष्ट की कल्पना से ऊपर उठकर सहज भाव से आहार को गले से नीचे उतारना और भोजन-काल में दूसरा कोई काम नहीं करना परिभोगैषणा है।
भोजन के संबंध में पूरी जागरूकता रखने वाला व्यक्ति ही स्वस्थ रह सकता है। इस विषय की जागरूकता में तीन बातें आती हैं-‘हितभुक्, मितभुक्, ऋतभुक्’ हितकारी भोजन, सीमित भोजन और सही ढंग से अर्जित और उत्पादित भोजन करने वाला स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता है। ऋतभोजन का संबंध उसकी उत्पत्ति के समय होने वाली वैचारिक और व्यावहारिक शुद्धि से तो है ही, उसके साथ एक बात और जोड़ देनी चाहिए। ऋत अर्थात् सत्य। सही भूख लगे, गहरी भूख का अनुभव हो तभी भोजन की उपयोगिता है। कृत्रिम भूख में किया गया भोजन ऋतभुक् नहीं हो सकता।
आज स्थिति क्या है? कोई मनोज्ञ पदार्थ सामने आया और मन खाने को ललचा गया। किसी ने मनुहार कर दी और खाने की इच्छा हो गई। पेट भर गया, पर मन नहीं भरा और अधिक खा लिया। यह स्थिति स्वास्थ्य के लिए हितकारी नहीं है। सच्ची भूख के बिना किया गया भोजन लाभ के बदले नुकसान पहुँचाता है। गहरी भूख में कोई भी पदार्थ खाया जाता है, वह मीठा लगता है। बिना भूख किसी पदार्थ का सही स्वाद ज्ञात ही नहीं हो सकता।
एक पिता ने जीवन के अंतिम क्षणों में अपने इकलौते बेटे को बुलाकर कहा-‘पुत्र! मैं तुझे एक बात कहता हूँ, ते उसे याद रखेगा? वह बोला-‘पिताजी! आप कैसी बात करते हैं? मैंने आज तक आपकी कोई भी बात टाली है? आप मुझे निर्देश दें, मैं उसका पालन करूँगा।’ पिता ने कहा-‘बेटा! अब अधिक बोलने की शक्ति नहीं है। इतना ही कहता हूँ कि तू सदा मीठा भोजन करना।’ कोई कठिन बात नहीं थी यह। पुत्र ने स्वीकृति दी और पिता ने दम तोड़ लिया। दाह संस्कार का काम पूरा होने के बाद उसने अपनी पत्नी को निर्देश दिया-‘मेरे पिताजी की आज्ञा है, इस घर में प्रतिदिन मिठाई बननी चाहिए।’ इस निर्देश से वह विस्मित तो अवश्य हुई, पर श्वसुर की आज्ञा का पालन करना उसका भी कर्तव्य था।
चार-पाँच दिन तो ठीक से व्यतीत हो गए, उसके बाद पुत्र का पेट खराब हो गया। मिठाई अब भी बनती थी, क्योंकि पिता की अंतिम शिक्षा जो थी। इस क्रम से वह कुछ ही दिनों में बीमार हो गया। बीमारी के कारण उसका स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो गया। अब वह सबके सामने अपने पिता को बुरा-भला कहता, गालियाँ देता और दुर्भावना व्यक्त करता।
एक दिन उसका, अपने पिता के पुराने मित्र से साक्षात्कार हुआ। उसकी हालत देखकर पिता का मित्र बोला, ”यह क्या हुलिया बना रखा है? कोई विशेष बात है?’ ये शब्द सुनते ही उसका आक्रोश फूटकर बाहर आ गया। वह बोला, ”यह है आपके मित्र की करामात। पता नहीं किस जन्म की शत्रुता का बदला लिया? पिताजी ने मेरे जीवन को मिट्टी में मिला दिया।“ पिता के मित्र को यह प्रसंग अटपटा लगा। उसने सोचा-मेरा मित्र कितना समझदार था। वह अपने पुत्र को गलत सलाह कैसे दे सकता था। कुछ समय बाद उसे अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया। पेट भर खा लेने के बाद उसके भोजन पात्र में बादाम का हलुवा परोसा गया, वह रुचिकर नहीं लगा। इसी प्रकार एक दिन गहरी भूख की स्थिति में उसके पात्र में रूखी रोटी परोसी, वह बहुत स्वादिष्ट लगी। यह बात स्वयं उसने स्वीकार कर ली तब उसके पिता का मित्र बोला-तुम्हारे पिता की शिक्षा का रहस्य यह है। तुम गहरी भूख लगने पर खाओ, हर पदार्थ मीठा हो जाएगा। अब उसे अपनी मूर्खता का अनुभव हो गया। आहार-विवेक साधना की सीधी-सी पृष्ठभूमि है। यह जब ठीक रहती है तो अग्रिम विकास की स्थिति स्वाभाविक बन जाती है। इसलिए हर साधक की भोजन संबंधी ज्ञान चेतना विकसित होनी चाहि।

वृत्तियों का शोषण: विचारों को पोषण

साधना शिविर में दो काम होते हैं-शोषण और पोषण। ध्यान, कायोत्सर्ग आदि के द्वारा वृत्तियों का शोषण होता है और योग-साहित्य के पठन तथा प्रवचन-श्रवण से विचारों को पोषण मिलता है। शोषण-ही-शोषण होता रहे, पोषण न हो तो वह बात एकांगी हो जाती है। इसलिए यहाँ एक साथ दोनों अपेक्षाओं की पूर्ति होती है। कल आहार की चर्चा चली थी, वह अधूरी रह गई, इस दृष्टि से आज उसी प्रसंग को आगे बढ़ाया जा रहा है।
जैन शास्त्रों में चार संज्ञाओं का उल्लेख है-आहार, निद्रा, भय, अब्रह्मचर्य। मनोविज्ञान में इसके लिए ‘मूलवृत्ति’ शब्द का प्रयोग हुआ है। संज्ञा शब्द शास्त्रीय है और वृत्ति शब्द व्यावहारिक है। शब्द का प्रयोग भी वैसा ही होना चाहिए, जो सहज हो या श्रोता को उलझन में डालने वाला न हो। जो शब्द अपने या दूसरे किसी के लिए खतरा उपस्थित करे, उससे बचना ही श्रेयस्कर है।
राजा के पास एक हाथी था। वह उसे सर्वाधिक प्रिय था। उसके लिए विशेष हस्तिपालों की नियुक्ति कर राजा ने उनको निर्देश दिया-‘इस हाथी को अच्छी प्रकार खिलाओ-पिलाओ और सुरक्षा की व्यवस्था करो। इसके संबंध में समय-समय पर मुझे सूचना देते रहना। किंतु मरने की सूचना कभी मत देना। जो ऐसी सूचना देगा, उसे मरना पड़ेगा।’
पूरी सुरक्षा और जागरूकता के बावजूद एक दिन हाथी मर गया। हस्तिपाल चिंतित हो उठे। उन्होंने कुछ अन्य समझदार व्यक्तियों से परामर्श किया, पर समाधान नहीं मिला। आखिर वे ‘रोहक’ के पास पहुँचे। रोहक की बुद्धि विलक्षण थी। उसने कहा, ”आप चिंता न करें। मैं आपके साथ चलूँगा।’ हस्तिपाल रोहक को साथ लेकर राजा के पास पहुँचे। राजा ने पूछा, ”मेरा प्रिय हाथी ठीक है?’ हस्तिपालों ने रोहक को आगे कर दिया। वह बोला-‘हाथी बहुत अच्छी स्थिति में है। पर समस्या है कि वह कुछ भी खाता नहीं है।’ राजा सहमता हुआ बोला-‘वह पानी तो पीता होगा?’ नहीं राजन्! उसने पानी भी छोड़ दिया।’ रोहक का यह उत्तर सुनकर राजा ने पुनः प्रश्न किया-‘वह घूमता-फिरता है या नहीं?’ रोहक बोला-‘नहीं, वह खड़ा ही नहीं हो पाता।’ राजा अब अधिक बर्दाश्त नहीं कर सका। उसने अंतिम बात कह दी-‘तो क्या वह मर गया?’ रोहक बोला-‘राजन्! यह बात आप कह सकते हैं, हम नहीं कह सकते। राजा स्थिति की यथार्थता को समझ गया और सब हस्तिपालों को जीवनदान मिल गया।

(क्रमशः)