संबोधि

स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(19) नयदृष्टिरनेकांतः स्याद्वादस्तत्प्रयोगकृत्।
विभज्यवाद इत्येष, सापेक्षो विदुषां मतः।।
(क्रमशः) अनेकांतदृष्टि वस्तु के अनंत धर्मों में सामंजस्य बैठाने वाली दृष्टि है। न उसमें कहीं आग्रह है, न ऐकांतिकता है भगवान महावीर ने अनेक विरोधी विचारों का समन्वय इसी सापेक्षवाद, स्याद्वाद के द्वारा किया था। दर्शन के क्षेत्र में आगे चलकर यही दृष्टि दार्शनिकों का विषय बनी और उसी के आधार पर समन्वयदृष्टि का विकास हुआ। समग्र एकांतिक दर्शनों को एकत्रित करने पर जो सत्य बनता है वह है अनेकांत दर्शन-जैन दर्शन।
द्रव्य-पदार्थ का संपूर्ण रूप ज्ञेय बन सकता है लेकिन वाच्य नहीं। स्याद्वाद वस्तु के एक धर्म का कथन करता है और अन्य धर्मों को अपने में समाहित रखता है। अपने स्वरूप-अस्तित्व की दृष्टि से वस्तु हैं और पर-द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है। घट पट आदि पदार्थ अपने स्वरूप की दृष्टि से हैं लेकिन अन्य पदार्थ की दृष्टि से नहीं हैं। पदार्थ में अस्ति और नास्ति दोनों धर्म न हों तो यथार्थ का आकलन होना भी कठिन हो जाता है। स्यात् शब्द के द्वारा पदार्थ का समग्र रूप वक्ता के सामने रहता है, वह पर सिर्फ उसके एक धर्म का प्रतिपादन करता है, अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता।
अखंड वस्तु का यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। उसके एक धर्म का प्रतिपादन ‘स्यात्’ शब्द से होता है। नय भी वस्तु के एक धर्म का कथन करना है, वह एकांगी है, किंतु वस्तु के अन्य धर्मों से पृथक् नहीं है। इसलिए वह एकांगी होकर भी एकांगी नहीं है। अन्यथा यथार्थ ज्ञान नहीं होता। विवादों की शंृखला एकांगी दृष्टि के कारण होती है। भले, वह विवाद धर्म, राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय आदि किसी भी क्षेत्र में हो। वक्ता के संपूर्ण अभिप्राय या आशय को एक शब्द स्पष्ट नहीं रख सकता। भाव या आशय को मूल से जुड़ा हुआ देखा जाए तो समस्या नहीं होती।
नयवाद अभेद और भेद-इन दो वस्तु धर्मों पर टिका हुआ है। सत्य के दो रूप हैं, इसलिए परखने की दो दृष्टियाँ हैं-द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि। द्रव्यदृष्टि अभेद का स्वीकार है और पर्यायदृष्टि भेद का। दोनों की सापेक्षता भेदाभेदात्मक सत्य का स्वीकार है। वस्तु भेद और अभेद की समष्टि है। भेद और अभेद-दोनों सत्य हैं। जहाँ अभेद प्रधान होता है वहाँ भेद गौण और जहाँ भेद प्रधान होता है वहाँ अभेद गौण। इसके आधार पर नय दो प्रकार का हो जाता है-द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय।

(क्रमशः)